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चेतन भगत का कॉलम:कई फैक्टर्स ने बिहार चुनावों को दिलचस्प बना दिया है

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4 मिनट पहले
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चेतन भगत, अंग्रेजी के उपन्यासकार

भारत में चुनावों का मौसम सदाबहार होता है। ऐसे में हमारे नेता और मीडिया कम से कम आधे समय चुनावी माहौल में रहते हैं। हालांकि इतने सारे चुनावों के बावजूद कुछ चुनाव इतने दिलचस्प होते हैं कि उन पर सबकी नजर होती है। इस बार का बिहार चुनाव भी ऐसा ही है। इसमें एक रोमांचक चुनाव के सारे मसाले हैं। यह एक बड़ा और महत्वपूर्ण राज्य है, इसमें चुनाव से पूर्व कोई स्पष्ट विजेता नहीं है और इसके नतीजे देश की मनोदशा की ओर इशारा करने जा रहे हैं।

बिहार भारत का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है। वो केवल यूपी से ही पीछे है। उसकी अनुमानित जनसंख्या 13 करोड़ है। अकेले जनसंख्या के आधार पर ही यह मैक्सिको और जापान के साथ दुनिया का 11वां या 12वां सबसे अधिक आबादी वाला देश बन सकता है। ऐसे में इसमें होने वाले चुनावों को लेकर व्यापक रुचि जगना स्वाभाविक है। भारत में ओपनियन पोल शायद ही कभी सटीक होते हैं, और इस बार तो उनको लेकर बहुत गड़बड़झाला है। इनके आधार पर कुछ विशेषज्ञ दृढ़ता से सत्ता-विरोधी लहर का संकेत दे रहे हैं, जिससे महागठबंधन को फायदा होता हो।

दूसरों का कहना है कि मोदी-भाजपा-नीतीश-एनडीए-जदयू ब्रांड गठबंधन में अभी भी जनता का विश्वास है। पीके की जन सुराज पार्टी नतीजों की भविष्यवाणी करने की जटिलता को और बढ़ा रही है। बिहार चुनाव परिणाम वोट-शेयर में मामूली उतार-चढ़ाव के प्रति संवेदनशील रहते हैं। 2020 के चुनाव खासे करीबी रहे थे, जिसमें एनडीए और महागठबंधन दोनों को 37.9% वोट मिले थे। एनडीए ने 125 सीटें (बहुमत का आंकड़ा 122) और महागठबंधन ने 110 सीटें जीती थीं। वोट-शेयर में कुछ प्रतिशत अंकों के बदलाव से भी इन सीटों में भारी उतार-चढ़ाव हो सकता है।

इतने सारे बदलते समीकरणों के हिसाब से बिहार को लेकर सबसे अच्छी भविष्यवाणी यही हो सकती है कि कोई नहीं जानता क्या होगा। देखें तो तमिलनाडु भी एक बड़ा राज्य है (जनसंख्या के हिसाब से देश में छठा) और अकसर उसके चुनावों में भी कोई स्पष्ट विजेता नहीं होता। लेकिन तमिलनाडु की राजनीति राष्ट्रीय स्तर पर अधिक असर नहीं डालती। यहां तक कि पिछले साल नवंबर में हुए महाराष्ट्र के चुनाव भी राष्ट्रीय मुद्दों से अधिक शिवसेना और राकांपा के विभाजन और इससे निर्मित हुई दुविधाओं के कारण चर्चित थे।

इनकी तुलना में बिहार विशुद्ध राष्ट्रीय मुद्दों से जूझ रहा है : जाति, धर्म, रोजगार, कानून-व्यवस्था और कल्याणकारी योजनाएं। यहां सभी प्रकार के जाति-धर्म-लैंगिक समूह महत्वपूर्ण हैं, जिन्हें पार्टियां अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही हैं। इसलिए, बिहार में जो कुछ भी होता है, वह देश के मूड का सबसे सटीक इंडिकेटर हो सकता है। वैसे बिहार में मुस्लिम आबादी प्रतिशत के हिसाब से शेष भारत की तुलना में ज्यादा है। यहां की जातिगत जनसांख्यिकी भी अन्य राज्यों की तुलना में भिन्न है।

इसके बावजूद बिहार के नतीजे दर्शाएंगे कि विभिन्न पृष्ठभूमियों और समुदायों के लोग क्या सोच रहे हैं। इनसे प्राप्त होने वाली अंतर्दृष्टियों को बाद में भारत के कई अन्य हिस्सों में लागू किया जा सकता है। एक और फैक्टर- जो बिहार के चुनावों को बड़ा बनाता है- केंद्र में एनडीए को जेडीयू का समर्थन होना है। बिहार के नतीजों का उस गठबंधन पर भी असर पड़ सकता है।

तो आश्चर्य की बात नहीं कि सभी दल और उनके शीर्ष नेता बिहार में पूरी ताकत झोंक रहे हैं। यह किसी साधारण राज्य का चुनाव नहीं है- यह ऐसा चुनाव है जिसका राष्ट्रीय राजनीति पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ने जा रहा है। यूं तो हमें नतीजे 14 नवंबर को ही पता चल सकेंगे, लेकिन तीन संभावित सिनैरियो इस प्रकार हैं :

1. एनडीए को जीत मिलने पर भाजपा निश्चिंत हो सकती है कि उसके काम को लोग- खासकर हिंदी पट्टी में- सराह रहे हैं। जेडीयू भी निश्चिंत हो सकती है कि उसकी नीतियों का मतदाताओं ने स्वागत किया है। वहीं महागठबंधन को विचार करना होगा कि क्या गलत हुआ और क्या उन्हें एक बेहतर नैरेटिव की आवश्यकता थी।

2. कांटे का मुकाबला नए गठबंधनों, सौदेबाजियों और राजनीतिक-रंगमंच की संभावनाओं को खोलेगा। लेकिन इसका मतलब यह भी होगा कि दोनों पक्ष अपनी-अपनी तरह से जीत का दावा कर सकते हैं- अपने में कोई वास्तविक बदलाव लाए बिना।

3. महागठबंधन की जीत राष्ट्रीय परिदृश्य पर गहरा असर डालेगी। विपक्ष का आत्मविश्वास बढ़ेगा। वहीं एनडीए को अपनी रणनीति बदलने और आत्मचिंतन करने पर मजबूर होना होगा- ठीक वैसे ही जैसे उसने 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद किया था!

  • आश्चर्य नहीं कि सभी दल और उनके शीर्ष नेता बिहार के चुनावों में अपनी पूरी ताकत झोंक रहे हैं। यह किसी साधारण राज्य का चुनाव नहीं है- यह ऐसा चुनाव है जिसका राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा असर पड़ने जा रहा है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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