नीरजा चौधरी का कॉलम:एसआईआर-2 की घोषणा से यह प्रक्रिया फिर सुर्खियों में
- Hindi News
 - Opinion
 - Neerja Chowdhary’s Column With The Announcement Of SIR 2, This Process Is Back In The Headlines
 
- 
कॉपी लिंक
 
बिहार चुनाव की गहमागहमी के बीच प्रशांत किशोर के पश्चिम बंगाल और बिहार, दोनों राज्यों में मतदाता के तौर पर पंजीकृत होने की खबर आई। इससे न केवल प्रशांत किशोर को झटका लगा, बल्कि इसने फिर से मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण-2 (एसआईआर-2) की ओर भी ध्यान खींचा है। निर्वाचन आयोग द्वारा यह प्रक्रिया अब और राज्यों में कराई जा रही है।
बिहार में इस प्रक्रिया के तहत जिन 68 लाख वोटरों के नाम हटाए गए, उनमें से 7 लाख ऐसे थे, जिनके नाम एक से अधिक वोटर सूची में दर्ज थे। अब चुनाव आयोग द्वारा 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में नवम्बर 2025 से फरवरी 2026 के बीच फिर से एसआईआर-2 की घोषणा ने इस कवायद को फिर से सुर्खियों में ला दिया है। केरल विधानसभा में इस प्रक्रिया के खिलाफ सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया।
पश्चिम बंगाल में टीएमसी ने राज्य में विधानसभा और नगरीय निकाय के चुनावों से ठीक पहले यह प्रक्रिया कराने के समय को लेकर सवाल उठाए। तमिलनाडु में डीएमके ने पार्टी के वोटरों को मताधिकार से वंचित करने आशंका जताई। इन तीनों ही राज्यों में विपक्षी दलों की सरकार हैं और वहां 2026 में चुनाव प्रस्तावित हैं।
उनका यही सवाल है कि चुनाव से ठीक पहले यह प्रक्रिया क्यों की जानी चाहिए? बिहार में भी यही किया गया था। असम में भी 2026 में चुनाव हैं, लेकिन आयोग ने क्या उसे केवल इसलिए छोड़ दिया है, क्योंकि वहां भाजपा की सरकार है? बिहार में एसआईआर प्रक्रिया विवादित रही थी। सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा था और वह अभी भी इसकी संवैधानिक वैधता की जांच कर रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो एसआईआर-2 में आयोग ने कुछ अच्छे बदलाव किए हैं।
मसलन, अब फॉर्म भरने के शुरुआती चरण में कोई दस्तावेज नहीं चाहिए। आधार कार्ड सत्यापन दस्तावेज के रूप में मान्य होगा। नाम हटाने के बजाय नए वोटरों को शामिल करने पर जोर है। और सबसे अहम, दलों से ‘संवाद’ किया जाएगा। इस पूरी प्रक्रिया के पटरी से उतरने के पीछे कारण तकनीकी या विवरण संबंधी जटिलताएं नहीं, बल्कि आयोग और विपक्षी दलों के बीच भरोसे की कमी है। और निर्वाचन आयोग भी शायद इस स्थिति से खुश नहीं होगा।
चाहे इसे सही मानें या गलत, लेकिन विपक्ष का आरोप है कि चुनाव आयोग सत्ताधारी दल की मदद कर रहा है। जिस तरीके से यह प्रक्रिया पूरी की गई, उसने कई लोगों के दिमाग में संशय पैदा किया है। और कई बार सच्चाई से ज्यादा धारणा मायने रखती है। इसीलिए यह जरूरी है कि आयोग नए सिरे से पहल कर विपक्ष की सारी शंकाओं को दूर करे, भले वे कोरी कल्पनाएं हों या सत्ता हासिल करने की मंशा से ही क्यों ना व्यक्त की जा रही हों। इससे आयोग पर जनता का भरोसा कायम रह सकेगा।
जरूरत पड़े तो आयोग को बार-बार विपक्ष से संवाद करने से भी नहीं हिचकना चाहिए, ताकि उसका कामकाज ना सिर्फ साफ-सुधरा हो, बल्कि वैसा दिखे भी। आखिर ऐसा क्या है, जो आयोग को विपक्ष के हर संशय की जांच करने और अपना जवाब देने से रोक रहा है? ऐसा करके आयोग को भले थोड़ा नुकसान हो, लेकिन अपनी विश्वसनीयता बहाल करके उसे बहुत फायदा होगा। फिर भी यदि विपक्ष जिद पर अड़ा रहे तो वह खुद बेनकाब हो जाएगा।
यह चुनाव आयोग का दायित्व है कि वह भारतीय नागरिकों की एक प्रामाणिक सूची बनाए। लेकिन अभी तक वह बिहार की मतदाता सूचियों में से गैर-भारतीयों की संख्या नहीं निकाल पाया है। जबकि एसआईआर का एक प्रमुख कारण यही था। विपक्षी दलों को लगता है कि सुप्रीम कोर्ट का नजरिया सामने आने तक एसआईआर के अगले चरण को रोक देना चाहिए। यह तर्कसंगत भी लगता है।
दूसरा सुझाव यह है कि एसआईआर को टुकड़ों-टुकड़ों में कराने के बजाय क्या एक ही चरण में पूरे देश में नहीं करा लेना चाहिए? कुछेक राज्यों में यह प्रक्रिया कराने से सिर्फ संशय ही पैदा होता है। नए सिरे से सभी दलों से चर्चा इसमें मददगार हो सकती है। आखिरकार, लोकतांत्रिक शिष्टाचार ही परस्पर संवाद को कायम रख सकता है। और हमारे लोकतंत्र की चुनौतियों का हल निकालने के लिए अपेक्षित भी है।
- आयोग का दायित्व है कि वह भारतीय नागरिकों की प्रामाणिक सूची बनाए। लेकिन अभी तक वह बिहार की मतदाता सूचियों में से गैर-भारतीयों की संख्या ही नहीं निकाल पाया है। जबकि एसआईआर कराने का एक प्रमुख कारण यही था।
 
(ये लेखिका के अपने विचार हैं।)