शुक्रवार को अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी की प्रेस कॉन्फ्रेंस से महिला पत्रकारों को वापस भेज दिया गया था। इससे देश में हंगामा मच गया। अगर रविवार को इस भूल को सुधारा नहीं गया होता तो यही उनकी छह दिवसीय भारत यात्रा का सबसे बड़ा संदेश साबित होता। लेकिन रविवार की सुबह मुंबई स्थित तालिबान सरकार के महाधिवक्ता- जो भारत में तैनात उनके एकमात्र राजनयिक हैं- ने पत्रकारों को मुत्ताकी की दूसरी प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए व्यक्तिगत निमंत्रण भेजा, जिनमें लगभग 30 महिला मीडियाकर्मी भी शामिल थीं। यह कॉन्फ्रेंस नई दिल्ली स्थित अफगान दूतावास परिसर में हुई। जाहिर है कि तालिबानी सरकार शुक्रवार की अपनी भूल को सुधार रही थी। वहीं भारत और अफगानिस्तान ने एक-दूसरे के साथ बातचीत की प्रक्रिया फिर से शुरू कर दी है। लेकिन शुक्रवार की प्रेस कॉन्फ्रेंस से महिला पत्रकारों को बाहर करने से राजधानी में बवाल मच गया था। कांग्रेस की प्रियंका गांधी और टीएमसी की महुआ मोइत्रा ने भी इस तरह से महिलाओं के साथ भेदभाव किए जाने पर नाराजगी जताई। मीडिया संगठनों ने सवाल उठाया कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ऐसा कैसे हो सकता है, जहां महिलाओं को कानूनी और संवैधानिक रूप से समान अधिकार प्राप्त हैं, और इसमें बिना किसी पूर्वग्रह के पेशेवर के रूप में काम करने का अधिकार भी शामिल है? हालांकि अफगानिस्तान दूतावास तकनीकी रूप से अफगानिस्तान का क्षेत्र है, फिर भी कई लोगों ने सवाल उठाया है कि अफगान शासन भारतीय महिलाओं पर तालिबानी मूल्य कैसे थोप सकता है, और वह भी भारतीय धरती पर? और तो और, भारत सरकार ने ऐसा कैसे होने दिया? अलबत्ताविदेश मंत्रालय ने महिला पत्रकारों को बाहर रखने के फैसले में अपनी किसी भी भूमिका से इनकार किया था। भारत में सत्तारूढ़ दल जानता है कि महिलाएं एक महत्वपूर्ण वोटबैंक हैं और उन्हें नाराज करना उनके लिए मुनासिब नहीं होगा- खासकर बिहार में आसन्न महत्वपूर्ण चुनावों को देखते हुए, जहां ‘एम’ (महिला) फैक्टर के मायने रखने की संभावना है। शुक्रवार के हंगामे के बाद 36 घंटों में भारत सरकार डैमेज-कंट्रोल मोड में आई और तालिबान सरकार के प्रतिनिधियों को भी ऐसा करने के लिए राजी कर लिया। दिलचस्प बात यह है कि रविवार की प्रेस कॉन्फ्रेंस में आमंत्रित महिलाएं मुख्य रूप से वे थीं, जो विदेश मामलों की रिपोर्टिंग करती हैं। मुत्ताकी को रविवार को ताजमहल देखने आगरा जाना था, लेकिन उन्हें अपना कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। उन्होंने 70-80 पत्रकारों के साथ एक और प्रेस कॉन्फ्रेंस की, जिनमें से लगभग आधी महिलाएं थीं। सभी महिलाएं आगे की पंक्तियों में बैठी थीं और उन्होंने भारतीय परिधान पहने हुए थे। उनमें से किसी ने अपना सिर नहीं ढांका था। न ही अफगान सरकार की ओर से ऐसी कोई शर्त लगाई गई थी। देर आए दुरुस्त आए। दोनों देशों के बीच चल रही बातचीत में इतना कुछ दांव पर लगा था कि न तो भारत और न ही तालिबान के नेतृत्व वाला अफगानिस्तान दुनिया में गलत संदेश जाने का जोखिम उठाना चाहता था। वे नहीं चाहते थे कि मुत्ताकी की यात्रा जेंडर सम्बंधी भेदभाव पर केंद्रित होकर रह जाए, जबकि मूल कहानी पाकिस्तान और क्षेत्र में उभर रही नई भू-राजनीतिक वास्तविकताओं से निपटने के लिए एक नई भारत-अफगान साझेदारी है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने काबुल में भारतीय दूतावास को फिर से खोलने की घोषणा की और मुत्ताकी ने कहा कि वे नई दिल्ली में और राजनयिक भेजेंगे। उन्होंने भारत को दुर्लभ खनिजों के खनन में मदद के लिए भी आश्वस्त किया। ध्यान रहे कि भारत अफगानिस्तान को मान्यता नहीं देता है, क्योंकि 2021 में तालिबान द्वारा उस पर कब्जा करने के बाद जब अमेरिकी नेतृत्व वाली नाटो सेनाएं वहां से वापस लौट आई थीं तो भारत ने उसके साथ संबंध तोड़ लिए थे। लेकिन अब दोनों देश भारत-अफगानिस्तान संबंधों को फिर से स्थापित करने की प्रक्रिया में हैं। भारत और अफगानिस्तान दोनों ही पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के शिकार रहे हैं। हाल ही में काबुल में विस्फोट हुए थे, जिसके बाद अफगान बलों ने पाकिस्तानी सैनिकों पर जवाबी कार्रवाई की थी। भारत तो लंबे समय से आतंकवाद का सामना कर ही रहा है। ऑपरेशन सिंदूर के समय इजराइल के अलावा तालिबान के नेतृत्व वाला अफगानिस्तान ही एकमात्र ऐसा देश था, जो उस समय भारत के साथ खड़ा था। तालिबान को आज नहीं तो कल महिलाओं से संवाद करना ही होगा- चाहे वह यूएन में हो या दुनिया की राजधानियों में महिला प्रधानमंत्रियों (इटली और जापान) के साथ। तमाम जगहों के मीडिया में भी महिलाएं होंगी ही।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं।)
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