नीरजा चौधरी का कॉलम:बिहार चुनाव एक रोचक मोड़ पर आ गए हैं

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49 मिनट पहले
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नीरजा चौधरी वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार

आम तौर पर चुनाव-प्रचार शुरू होते ही गठबंधनों के अंदरूनी मतभेद मिट जाते हैं। लेकिन बिहार में इस बार इससे उलटी ही गंगा बह रही है! वहां पर ये मतभेद और ज्यादा उभरकर सामने आ रहे हैं। यह असाधारण है कि राजद-कांग्रेस के नेतृत्व वाला महागठबंधन नामांकन दाखिल करने की आखिरी तारीख (पहले चरण के मतदान के लिए) से पहले सीटों के बंटवारे तक पर सहमति नहीं बना पाया है।

और यह तब है, जब इस बार का मुकाबला कांटे की टक्कर जैसा माना जा रहा था। इन चुनावों में महागठबंधन को नीतीश कुमार के शासन के खिलाफ 20 सालों की सत्ता विरोधी लहर का भी फायदा मिलता हुआ माना जा रहा था और कुछ समय पहले ही राहुल गांधी-तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाली वोटर अधिकार यात्रा को भी लोगों की उत्साहजनक प्रतिक्रिया मिली थी।

यह तो खैर अपेक्षित ही था कि कांग्रेस- जो हिंदी पट्टी में अपनी स्थिति को फिर से मजबूत करना चाहती है- सीटों के लिए तगड़ा मोलभाव करेगी। लेकिन यह समझ से परे था कि वह इस तरह की हरकतें करने लगेगी, जिससे वोटर यात्रा के जरिए उसके पक्ष में बनी लय ही खत्म हो जाए। इससे यह संकेत मिलता है कि महागठबंधन के भीतर भी अनेक टकराव हैं।

2020 में भी कांग्रेस ने 70 सीटें मांगी थीं और उसे मिली भी थीं, लेकिन वो केवल 19 सीटें ही जीत पाई थी। इसका खामियाजा महागठबंधन को भुगतना पड़ा, जो एनडीए से मामूली अंतर से चुनाव हार गया। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव ने अपनी वोटर अधिकार यात्रा के दौरान तालमेल तो दिखाया, लेकिन इसके बावजूद वो अपने मतभेदों को सुलझाने में असमर्थ महसूस कर रहे हैं, और इससे उनके सहयोगी दुविधा में हैं।

बिहार को लेकर कांग्रेस के निर्णय में असमंजस की स्थिति है। उसे उन्हीं सीटों के बारे में अधिक यथार्थवादी होना चाहिए, जिन्हें वह जीत सकती थी और जिनके लिए जमकर सौदेबाजी कर सकती है। ये सच है कि राहुल गांधी की ने बिहार में कांग्रेस के लिए सद्भावना पैदा की है, लेकिन इस जनसमर्थन को वोटों में बदलने के लिए उनके पास फिलहाल एक संगठनात्मक ढांचा नहीं है।

कांग्रेस पार्टी अपनी प्राथमिकताओं को लेकर भी भ्रम में दिख रही है। यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि बिहार में उसकी पहली प्राथमिकता भाजपा/एनडीए को हराना है या कांग्रेस को पुनर्जीवित करना है? महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में तेजस्वी यादव को समर्थन देने से पार्टी ने जो आनाकानी की है, उससे भी यह धारणा बनी है कि महागठबंधन अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के बारे में ही स्पष्ट नहीं है।

बात केवल महागठबंधन की ही नहीं है। मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर असमंजस की स्थिति एनडीए में भी है। वह दूसरी सम्भावनाओं के लिए दरवाजा खुला रखे हुए है। अमित शाह ने ये तो स्पष्ट रूप से कहा कि एनडीए नीतीश के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहा है, लेकिन अगर एनडीए सत्ता में आता है तो नीतीश के मुख्यमंत्री बनने के बारे में उन्होंने साफ शब्दों में कुछ नहीं कहा।

शाह ने एक प्रक्रिया का पालन करने की बात कह दी कि एनडीए के सहयोगी दलों के नवनिर्वाचित विधायक मिलेंगे और तय करेंगे कि उनका नेता कौन होगा। उनके शब्दों का यह अर्थ निकाला गया है कि बिहार का अगला एनडीए मुख्यमंत्री अभी एक खुला प्रश्न है।

हालांकि बिहार की चुनावी लड़ाई को नीतीश बनाम तेजस्वी माना जा रहा है, लेकिन अजीब बात यह है कि दोनों ही गठबंधन अपने सम्भावित मुख्यमंत्रियों के बारे में स्पष्ट नहीं हैं- और यही कहानी का दिलचस्प पहलू है। इस भ्रम का कारण बिहार की बदलती राजनीति है। ऐसे में यह सम्भव है कि बिहार के नतीजे दूसरे राज्यों के लिए ट्रेंडसेटर साबित हों।

लालू और नीतीश ने मिलकर 35 वर्षों तक बिहार पर शासन किया है और क्षेत्रीय दलों का नेतृत्व किया है। ये दल बिहार में कभी प्रभावशाली रही कांग्रेस को नुकसान पहुंचाकर ही उभरे हैं। उन्होंने ऐसा सामाजिक न्याय की राजनीति से किया। आज मुख्यधारा की दोनों पार्टियां क्षेत्रीय संगठनों के संबंध में अपनी दावेदारियां पेश कर रही हैं। कांग्रेस चूंकि पुनरुत्थान की कोशिश कर रही है, इसलिए वह बड़ी संख्या में जीतने वाली सीटों के लिए कड़ा मोलभाव कर रही है। जबकि राजद को डर है कि कांग्रेस का पुनरुत्थान उसकी कीमत पर होगा।

दूसरी मुख्यधारा की पार्टी भाजपा- जो जाति-आधारित सामाजिक न्याय के विपरीत हिंदू राष्ट्रवाद का नारा बुलंद करके उभरी थी- इस बार अपनी सहयोगी जद(यू) के मुकाबले अधिक दावेदारी पेश कर रही है। अगर एनडीए विजयी होता है तो इस बार भाजपा ही सरकार का नेतृत्व करना चाहेगी। पिछली बार तो उसने जद(यू) को मुख्यमंत्री पद लेने की अनुमति दे दी थी, जबकि उसने केवल 43 सीटें जीती थीं और भाजपा ने 74 सीटें हासिल की थीं। जबकि जद(यू) ने 115 सीटों और भाजपा ने 110 सीटों पर चुनाव लड़ा था।

इस बार भाजपा और जद(यू) दोनों ही 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं। लेकिन भाजपा को चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोजपा (रामविलास) का समर्थन प्राप्त होगा, जिसे 29 सीटें दी गई हैं। चिराग पासवान को आगे करने का उद्देश्य दलित वोटों को भाजपा/एनडीए के पक्ष में एकजुट करना है।

दलितों का एक वर्ग 2024 के लोकसभा चुनावों में महागठबंधन की ओर झुक गया था, इसलिए अब भाजपा दलित फैक्टर पर ध्यान केंद्रित करना चाहती है। चिराग पासवान की पासवान समुदाय (राज्य की आबादी का 5%) पर पकड़ है और जीतन मांझी की मुसहर समुदाय (आबादी का 3%) पर पकड़ है। वैसे नीतीश ने अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए एक बार फिर महिला कार्ड खेला है। उन्होंने मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत 1.1 करोड़ महिलाओं को 10,000 रु. हस्तांतरित कर दिए हैं।

क्या नीतीश एक बार फिर लालू के खेमे में जा सकते हैं? अगर नीतीश को मुख्यमंत्री पद से वंचित कर दिया जाता है, तो क्या वे एक बार फिर पलटी मारकर राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन से हाथ मिला सकते हैं? यह मानना ​​तो खैर नासमझी होगी कि वे पहले ही दूसरे पक्ष के सम्पर्क में नहीं होंगे या अपने विकल्प खुले नहीं रखेंगे। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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