मिन्हाज मर्चेंट का कॉलम:बिहार के नतीजों का असर आगामी चुनावों पर भी पड़ेगा
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बिहार चुनाव एनडीए और इंडिया दोनों गठबंधनों को चेताने वाला साबित हो सकता है। सीट बंटवारे को लेकर हफ्तों तक चली अंदरूनी खींचतान के बाद अब महागठबंधन में नई जान फूंक दी गई है। तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके महागठबंधन ने एनडीए को असमंजस में डाल दिया है। उसे अप्रत्यक्ष रूप से यह पुष्टि करने पर मजबूर होना पड़ा है कि अगर वो सत्ता में वापस आता है तो नीतीश कुमार अपना पद बरकरार रखेंगे।
2020 में, 243 सीटों वाली विधानसभा में राजद सबसे ज्यादा सीटें (75) लेकर उभरी थी। उसके बाद भाजपा (74 सीटें) थी। जदयू तीसरे (43) और कांग्रेस चौथे स्थान (19) पर रही। महागठबंधन और एनडीए के बीच वोट-शेयर का अंतर बहुत कम था।
दोनों को लगभग 37% वोट मिले थे। लेकिन इस बार महिलाओं को वित्तीय सहायता और हर परिवार को रोजगार की गारंटी देने की घोषणा के बावजूद हालात महागठबंधन के पक्ष में जाते दिख रहे हैं। गृहमंत्री अमित शाह भी भाजपा के आंतरिक सर्वेक्षणों से चिंतित थे, जिनमें कांटे की टक्कर दिखाई गई थी। इसी वजह से शाह ने पार्टी के बिहार में चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान के साथ स्थिति का जायजा लेने के लिए तीन दिन बिहार में बिताए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बिहार चुनाव अभियान ने भी एक नई तेजी पकड़ ली है।
महागठबंधन की दो रणनीतिक गलतियां उसे परेशान कर सकती हैं। पहली, उसने सीटों के बंटवारे में देरी की, जिससे बागियों को अपनी ही पार्टी के उम्मीदवारों के खिलाफ चुनाव लड़ने का मौका मिल गया। दूसरी, राहुल गांधी और तेजस्वी यादव के बीच रिश्ते खराब हो गए।
अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान तेजस्वी राहुल से नहीं मिले। लेकिन उसके बाद से दोनों के बीच दरार कम हुई है। राहुल गांधी चुनाव प्रचार अभियान में कम सक्रिय रहे हैं, जिससे तेजस्वी यादव को कमान संभालने का मौका मिला है। इससे यह होगा कि महागठबंधन के चुनाव हारने पर राहुल गांधी को कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन राजद के बागी कड़े मुकाबले वाली सीटों पर महत्वपूर्ण वोटों को हड़प सकते हैं।
उधर एनडीए ने चिराग पासवान की लोजपा के साथ अपनी आंतरिक चुनौती को शुरुआती चरण में ही हल कर लिया और चिराग की मांग के अनुसार 40 में से 29 सीटें उन्हें दे दीं। एनडीए की रणनीति अपने सहयोगियों के जातीय गणित के आधार पर वोटों के रिसाव को कम से कम करना है।
बिहार की आबादी में अनुसूचित जातियों की हिस्सेदारी 19.7% है। वहीं ओबीसी 27.2% हैं। यह चुनाव नीतीश का आखिरी चुनाव हो सकता है, इसलिए भाजपा और चिराग दोनों ने अपनी-अपनी मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षाओं को फिलहाल किनारे रखने का फैसला किया है।
हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली में हार के बाद, इंडिया गठबंधन अपनी खोई हुई लय को फिर से हासिल करने के लिए बिहार पर दांव लगा रहा है। 2026 में भी कई महत्वपूर्ण चुनाव होने हैं। बीएमसी चुनाव भी होने हैं, जो 2022 से स्थगित है। बीएमसी का वार्षिक बजट उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों के वार्षिक बजट से भी बड़ा है। असम, बंगाल, तमिलनाडु और केरल में भी महत्वपूर्ण चुनाव होने जा रहे हैं।
असम में हिमंता सरकार पूर्व असम अध्यक्ष राजेंद्र गोहेन के भाजपा से इस्तीफे के बावजूद सत्ता बरकरार रखने के लिए मजबूत स्थिति में है। बंगाल में ममता बनर्जी 15 साल सत्ता में रहने के बाद भारी सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रही हैं।
राज्य में भ्रष्टाचार के मामलों और हिंसक दुष्कर्म की घटनाओं ने मध्यम वर्ग को उनके खिलाफ कर दिया है। लेकिन 33% मुस्लिम वोटों पर पकड़ के कारण उन्हें सत्ता से हटाना मुश्किल हो सकता है। यही बात तमिलनाडु पर भी लागू होती है, जहां एमके स्टालिन ने कमजोर अन्नाद्रमुक-भाजपा विपक्ष के सामने अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए द्रविड़ कार्ड खेला है।
केरल एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां 2026 के वसंत में सरकार बदल सकती है। भ्रष्टाचार से ग्रस्त वामपंथी सरकार को जबरदस्त सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है और वह कांग्रेस के हाथों सत्ता खो सकती है। लेकिन इतना तो तय है कि बिहार के नतीजों का इन सब पर असर पड़ेगा।
हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली में हार के बाद, इंडिया गठबंधन अपनी खोई हुई लय को फिर से हासिल करने के लिए बिहार पर दांव लगा रहा है। 2026 में भी कई महत्वपूर्ण चुनाव होने हैं। बिहार के चुनावी नतीजों का असर उन पर पड़ेगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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