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  • PAK W vs SA W: 6 मैच, 0 जीत… पाकिस्तान महिला टीम का हाल बेहाल! साउथ अफ्रीका ने 150 रन से रौंदा, वर्ल्ड कप से भी किया बाहर

    PAK W vs SA W: 6 मैच, 0 जीत… पाकिस्तान महिला टीम का हाल बेहाल! साउथ अफ्रीका ने 150 रन से रौंदा, वर्ल्ड कप से भी किया बाहर

    PAK W vs SA W: पाकिस्तान महिला क्रिकेट टीम का वर्ल्ड कप अभियान शर्मनाक अंदाज में खत्म हो गया है. छह मैचों में एक भी जीत नहीं मिलने के बाद टीम पूरी तरह टूर्नामेंट से बाहर हो गई. मंगलवार को दक्षिण अफ्रीका ने पाकिस्तान को डकवर्थ-लुईस नियम के तहत 150 रन से हराकर टूर्नामेंट की सबसे बड़ी जीत दर्ज की और अंक तालिका में शीर्ष स्थान हासिल किया.

    साउथ अफ्रीका की तूफानी पारी

    पर्थ के मैदान पर खेले गए इस मैच में साउथ अफ्रीका ने पहले बल्लेबाजी करते हुए 40 ओवर में 9 विकेट पर 312 रन बनाए. टीम की कप्तान लॉरा वोलवार्ट ने 82 गेंदों में 90 रन ठोके. उनकी पारी में 10 चौके और 2 छक्के शामिल रहे. वहीं सुने लूस ने 61 रन और मारिजेन कैप ने 43 गेंदों में नाबाद 68 रन की ताबड़तोड़ पारी खेली.

    अंतिम ओवरों में नेदिन डि क्लर्क ने विस्फोटक अंदाज में बल्लेबाजी करते हुए सिर्फ 16 गेंदों में 41 रन बनाकर पाकिस्तान की गेंदबाजी की धज्जियां उड़ा दीं. साउथ अफ्रीका ने आखिरी 5 ओवरों में 70 से ज्यादा रन बटोरे, जिससे स्कोर 300 के पार चला गया.

    पाक गेंदबाजी का बुरा हाल

    पाकिस्तान की ओर से सिर्फ नाशरा संधू (3/45) और सादिया इकबाल (3/63) कुछ हद तक असरदार रहीं, बाकी सभी गेंदबाजों को अफ्रीकी बल्लेबाजों ने जमकर पीटा. कप्तान फातिमा सना ने 8 ओवरों में 69 रन लुटाए और एक भी विकेट नहीं लिया.

    बारिश भी नहीं बचा पाई पाकिस्तान को

    बारिश की वजह से लक्ष्य घटाकर 20 ओवरों में 234 रन कर दिया गया, लेकिन पाकिस्तान टीम ने पूरी तरह घुटने टेक दिए. टीम 20 ओवर में सिर्फ 83 रन के शर्मनाक स्कोर पर ऑलआउट हो गई. सिर्फ नतालिया परवेज (20) और सिदरा नवाज (22 नाबाद) ही कुछ देर टिक सकीं.

    साउथ अफ्रीका की मारिजेन कैप ने बल्ले के बाद गेंद से भी शानदार प्रदर्शन किया. उन्होंने अपने स्पेल में 3 विकेट झटके और पाकिस्तान की टॉप ऑर्डर को तहस-नहस कर दिया.

    वर्ल्ड कप में पाकिस्तान की सबसे खराब परफॉर्मेंस

    छह मैचों में पांच हार और एक रद्द मुकाबले के साथ पाकिस्तान महिला टीम टूर्नामेंट की अंक तालिका में सबसे नीचे है. लगातार हार से टीम का मनोबल पूरी तरह टूट चुका है. वहीं, साउथ अफ्रीका की टीम ने लगातार पांचवीं जीत दर्ज कर सेमीफाइनल में अपनी जगह पक्की कर ली है. 

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  • UPPSC Recruitment 2025: सरकारी नौकरी का सुनहरा मौका, UP में निकली कई पदों पर वैकेंसी, पढ़ें डिटेल्स

    UPPSC Recruitment 2025: सरकारी नौकरी का सुनहरा मौका, UP में निकली कई पदों पर वैकेंसी, पढ़ें डिटेल्स

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  • गाजा में भारी तबाही, इजरायल ने बरसाए 153 टन बम, नेतन्याहू की चेतावनी- पूरा नहीं हुआ सैन्य अभियान

    गाजा में भारी तबाही, इजरायल ने बरसाए 153 टन बम, नेतन्याहू की चेतावनी- पूरा नहीं हुआ सैन्य अभियान

    इजरायल और हमास के बीच ट्रंप की अगुआई में किया गया सीजफायर समझौता पर टूटने के कगार पर पहुंच चुका है. इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने सोमवार (20 अक्तूबर 2025) को चेतावनी दी कि हमास के खिलाफ उनका सैन्य अभियान अभी पूरा नहीं हुआ है.

    इजरायली सेना ने गाजा पर 153 टन बम गिराए

    बेंजामिन नेतन्याहू ने सोमवार को अपनी संसद में कहा कि इजरायली सेना ने गाजा पर 153 टन बम गिराए हैं. उन्होंने इसे हमास की ओर से सीजफायर तोड़ने के जवाब में की गई कर्रवाई बताया है. उन्होंने कहा, “हमारे एक हाथ में हथियार है तो दूसरा हाथ शांति के लिए बढ़ा हुआ है. शांति के लिए मजबूती होने की जरूरत है और इजरायल पहले से कहीं ज्यादा मजबूत है.”

    अभी पूरा नहीं हुआ सैन्य अभियान: नेतन्याहू 

    इजरायली पीएम नेतन्याहू ने कहा कि गाजा में अभी सैन्य अभियान पूरा नहीं हुआ है, जिससे सीजफायर के टिकने पर भी सवाल उठ गए हैं. इजरायल ने रफा में IDF पर हमास के हमले के बाद एयरस्ट्राइक शुरू कर दी है. हमास के इस हमले में इजरायल के दो सैनिकों की मौत हुई थी.

    नेतन्याहू ने इस हमले को युद्धविराम का खुला उल्लंघन बताया और कहा कि इजरायल ने हमास के वरिष्ठ कमांडरों समेत 12 से अधिक ठिकानों पर जवाबी हमला किया. हमास ने हमले में किसी भी तरह की संलिप्तता से इनकार किया है. नेतन्याहू ने कहा, “हमने अपनी स्थिति सुधारी है. हम अपने बंधकों को वापस लाए. कुछ लोग अभी भी वहीं है और उन्हें भी हम जल्द ही वापस लाएंगे.”

    ‘सीजफायर इजरायल को धमकाने का लाइसेंस नहीं देता’

    टाइम्स ऑफ इजरायल की रिपोर्ट के अनुसार नेतन्याहू ने हमास की सैन्य और शासन क्षमताओं को खत्म करने की बात कही है. उन्होंने जोर देकर कहा कि सीजफायर हमास को इजरायल को धमकाने का लाइसेंस नहीं देता. उन्होंने कहा, “हमारे खिलाफ आक्रामकता की बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.”

    इस बीच अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस मंगलवार (21 अक्टूबर 2025) गाजा युद्धविराम को मजबूत करने इजरायल पहुंचे हैं. सीजफायर के बाद हुई हिंसा में 2 इजरायली सैनिक और 45 फिलिस्तीनी मारे जा चुके हैं.

    ये भी पढ़ें :  ‘काबुल पर कोई हुक्म नहीं चला सकता, पाकिस्तान की बातें बेतुकी…’, शहबाज शरीफ को अफगानिस्तान का करारा जवाब

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  • इतनी तेजी से कैसे जल जाता है कपूर, आखिर इसमें क्या-क्या मिलाया जाता है?

    इतनी तेजी से कैसे जल जाता है कपूर, आखिर इसमें क्या-क्या मिलाया जाता है?

    पूजा और धार्मिक अनुष्ठानों में कपूर का इस्तेमाल सदियों से होता आ रहा है. माचिस की तीली लगते ही कपूर जल उठता है और उसकी सुगंध चारों ओर फैल जाती है, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि यह कपूर आखिर कैसे बनता है और यह इतनी जल्दी क्यों जल जाता है? इसके पीछे की कहानी प्राकृतिक विज्ञान और इतिहास दोनों से जुड़ी हुई है. चलिए जानें.

    कैसे बनाया जाता है कपूर?

    कपूर मुख्यतः दो प्रकार का मिलता है- नेचुरल कपूर और आर्टिफिशियल कपूर. नेचुरल कपूर कैम्फूर के पेड़ Cinnamomum Camphora से प्राप्त होता है. यह पेड़ 50 से 60 फीट तक ऊंचा हो सकता है और इसकी पत्तियां गोल और लगभग 4 इंच चौड़ी होती हैं. कपूर बनाने के लिए पेड़ की छाल का इस्तेमाल किया जाता है. दरअसल जब छाल सूखने लगती है, तो उसका रंग भूरा-ग्रे जैसा हो जाता है. इसे पेड़ से अलग किया जाता है और फिर गर्म करके रिफाइन किया जाता है. इसके बाद छाल को पीसकर पाउडर बनाया जाता है और उसे कपूर का परंपरागत शेप दिया जाता है.

    मुख्य रूप से कहां पाया जाता है यह?

    कैम्फर का पेड़ मुख्य रूप से पूर्वी एशिया यानी चीन में पाया जाता है और मूलतः यह जापान का पेड़ माना जाता है. चीन में लोक चिकित्सा पद्धति में इसका इस्तेमाल सदियों से होता रहा है. नौवीं शताब्दी के आसपास इसे कपूर बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया और धीरे-धीरे यह दुनियाभर में प्रसिद्ध हो गया. 

    भारत में कैसे पहुंचा कपूर?

    भारत में कपूर की खेती का इतिहास 19वीं शताब्दी के अंत से जुड़ा है. 1932 में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर के अनुसार 1882-1883 के दौरान लखनऊ के हॉर्टिकल्चर गार्डन में कैम्फूर की खेती में सफलता मिली थी. हालांकि प्रारंभिक सफलता थोड़े समय तक ही रही, लेकिन बाद में बड़े पैमाने पर इस पेड़ की खेती शुरू हो गई. 

    इतनी तेजी से कैसे जलता है कपूर?

    कपूर इतनी तेजी से जलने का कारण इसकी रासायनिक संरचना में छिपा है. इसमें कार्बन और हाइड्रोजन की मात्रा पर्याप्त होती है, जिससे इसका ज्वलन तापमान बहुत कम होता है. इसका मतलब है कि हल्की हीट या माचिस की छोटी चिंगारी भी इसे जलाने के लिए पर्याप्त होती है. कपूर की वाष्प हवा में फैलकर ऑक्सीजन से मिलती है और इसी कारण यह बहुत तेजी से जलने लगता है. यही वजह है कि पूजा-पाठ में कपूर का इस्तेमाल करते समय उसकी सुगंध और ज्वलनशीलता दोनों ही अनुभव किए जा सकते हैं.

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    निधि पाल को पत्रकारिता में छह साल का तजुर्बा है. लखनऊ से जर्नलिज्म की पढ़ाई पूरी करने के बाद इन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत भी नवाबों के शहर से की थी. लखनऊ में करीब एक साल तक लिखने की कला सीखने के बाद ये हैदराबाद के ईटीवी भारत संस्थान में पहुंचीं, जहां पर दो साल से ज्यादा वक्त तक काम करने के बाद नोएडा के अमर उजाला संस्थान में आ गईं. यहां पर मनोरंजन बीट पर खबरों की खिलाड़ी बनीं. खुद भी फिल्मों की शौकीन होने की वजह से ये अपने पाठकों को नई कहानियों से रूबरू कराती थीं.

    अमर उजाला के साथ जुड़े होने के दौरान इनको एक्सचेंज फॉर मीडिया द्वारा 40 अंडर 40 अवॉर्ड भी मिल चुका है. अमर उजाला के बाद इन्होंने ज्वाइन किया न्यूज 24. न्यूज 24 में अपना दमखम दिखाने के बाद अब ये एबीपी न्यूज से जुड़ी हुई हैं. यहां पर वे जीके के सेक्शन में नित नई और हैरान करने वाली जानकारी देते हुए खबरें लिखती हैं. इनको न्यूज, मनोरंजन और जीके की खबरें लिखने का अनुभव है. न्यूज में डेली अपडेट रहने की वजह से ये जीके के लिए अगल एंगल्स की खोज करती हैं और अपने पाठकों को उससे रूबरू कराती हैं.

    खबरों में रंग भरने के साथ-साथ निधि को किताबें पढ़ना, घूमना, पेंटिंग और अलग-अलग तरह का खाना बनाना बहुत पसंद है. जब ये कीबोर्ड पर उंगलियां नहीं चला रही होती हैं, तब ज्यादातर समय अपने शौक पूरे करने में ही बिताती हैं. निधि सोशल मीडिया पर भी अपडेट रहती हैं और हर दिन कुछ नया सीखने, जानने की कोशिश में लगी रहती हैं.

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  • Risk of cancer in cirrhosis: कितना खतरनाक हो सकता है लिवर सोराइसिस, किस स्टेज में ये बन जाता है कैंसर?

    Risk of cancer in cirrhosis: कितना खतरनाक हो सकता है लिवर सोराइसिस, किस स्टेज में ये बन जाता है कैंसर?

    Liver cirrhosis stages: लिवर हमारे शरीर का एक जरूरी अंग है, यह सिर्फ ब्लड को फिल्टर ही नहीं करता, इसके साथ यह मेटाबॉलिज्म, पाचन और डिटॉक्सिफिकेशन जैसे कई काम भी करता है. हालांकि बदलती लाइफस्टाइल के चलते इसको काफी नुकसान हो रहा है. इसमें से एक है लिवर सिरोसिस. जब लिवर को लगातार नुकसान पहुंचता है, तो धीरे-धीरे वह अपनी हेल्दी सेल्स को खोने लगता है और उनकी जगह पर स्कार टिश्यू बन जाते हैं. अक्सर लोग इसको हल्के में लेते रहते हैं, लेकिन बाद में यह काफी दिक्कत देती है. चलिए आपको बताते हैं कि लिवर सिरोसिस कितना खतरनाक है और किस स्टेज में यह कैंसर बन जाता है.

    लिवर सिरोसिस कितना खतरनाक?

    सवाल यह आता है कि जिस लिवर सिरोसिस को हम हल्के में लेते हैं, वह कितना खतरनाक होता है. तो आपको बताते चलें कि लिवर सिरोसिस एक क्रॉनिक डिजीज है, यानी यह लंबे समय तक चलती है और धीरे-धीरे बढ़ती है. शुरुआत में जब यह बीमारी होती है, तो लिवर का 20 से 30 प्रतिशत हिस्सा खराब होता है. इस समय तक हमें कोई दिक्कत नहीं दिखती है, लेकिन जैसे ही यह दिक्कत बढ़ती है इसके तमाम लक्षण दिखने लगते हैं. इसमें थकान और कमजोरी, भूख कम लगना, पेट में सूजन, बार-बार इंफेक्शन और खून की उल्टी या ब्लीडिंग शामिल होती हैं. अगर समय पर इसका इलाज न किया जाए, तो यह जानलेवा बन जाती है. कई रिसर्च और American Liver Foundation की रिपोर्ट्स बताती हैं कि लिवर कैंसर के लगभग 80 से 90 प्रतिशत मरीजों में सिरोसिस मौजूद होता है.

    कब हो जाता है यह खतरनाक?

    लिवर सिरोसिस को चार स्टेज में बांटा जाता है, और हर स्टेज पर कैंसर का खतरा अलग होता है. इसमें पहला स्टेज है कम्पेन्सेटेड सिरोसिस, इसमें शुरुआत होती है. दूसरा होता है कम्पेन्सेटेड सिरोसिस विद वैरिसीज, इसमें नसों पर दबाव बढ़ जाता है और कैंसर का रिस्क पहले से बढ़ जाता है. तीसरा स्टेज होता है डी-कम्पेन्सेटेड सिरोसिस, इसमें लिवर को काम करने में दिक्कत होने लगती है. इसके बाद आता है चौथा स्टेज एंड-स्टेज सिरोसिस, इसमें लिवर काम करना पूरी तरह बंद कर देता है और मरीज का बचना मुश्किल हो जाता है. इसके साथ ही इस स्टेज में कैंसर की संभावना काफी बढ़ जाती है. मेडिकल रिसर्च के अनुसार, हर साल 1 से 8 प्रतिशत सिरोसिस के मरीजों में लिवर कैंसर विकसित हो सकता है. हालांकि अगर सिरोसिस हेपेटाइटिस B या C की वजह से है, तो खतरा और ज्यादा है.

    इसे भी पढें- ADHD Daily life Challenges: घर की चाबी से लेकर चश्मे तक… छोटी-छोटी चीजें भूल जाते हैं आप, कहीं ADHD तो नहीं?

    Disclaimer: यह जानकारी रिसर्च स्टडीज और विशेषज्ञों की राय पर आधारित है. इसे मेडिकल सलाह का विकल्प न मानें. किसी भी नई गतिविधि या व्यायाम को अपनाने से पहले अपने डॉक्टर या संबंधित विशेषज्ञ से सलाह जरूर लें.

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    जर्नलिज्म की दुनिया में करीब 15 साल बिता चुकीं सोनम की अपनी अलग पहचान है. वह खुद ट्रैवल की शौकीन हैं और यही वजह है कि अपने पाठकों को नई-नई जगहों से रूबरू कराने का माद्दा रखती हैं. लाइफस्टाइल और हेल्थ जैसी बीट्स में उन्होंने अपनी लेखनी से न केवल रीडर्स का ध्यान खींचा है, बल्कि अपनी विश्वसनीय जगह भी कायम की है. उनकी लेखन शैली में गहराई, संवेदनशीलता और प्रामाणिकता का अनूठा कॉम्बिनेशन नजर आता है, जिससे रीडर्स को नई-नई जानकारी मिलती हैं. 

    लखनऊ यूनिवर्सिटी से जर्नलिज्म में ग्रैजुएशन रहने वाली सोनम ने अपने पत्रकारिता के सफर की शुरुआत भी नवाबों के इसी शहर से की. अमर उजाला में उन्होंने बतौर इंटर्न अपना करियर शुरू किया. इसके बाद दैनिक जागरण के आईनेक्स्ट में भी उन्होंने काफी वक्त तक काम किया. फिलहाल, वह एबीपी लाइव वेबसाइट में लाइफस्टाइल डेस्क पर बतौर कंटेंट राइटर काम कर रही हैं.

    ट्रैवल उनका इंटरेस्ट  एरिया है, जिसके चलते वह न केवल लोकप्रिय टूरिस्ट प्लेसेज के अनछुए पहलुओं से रीडर्स को रूबरू कराती हैं, बल्कि ऑफबीट डेस्टिनेशन्स के बारे में भी जानकारी देती हैं. हेल्थ बीट पर उनके लेख वैज्ञानिक तथ्यों और सामान्य पाठकों की समझ के बीच बैलेंस बनाते हैं. सोशल मीडिया पर भी सोनम काफी एक्टिव रहती हैं और अपने आर्टिकल और ट्रैवल एक्सपीरियंस शेयर करती रहती हैं.

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  • प्रो. चेतन सिंह सोलंकी का कॉलम:दिवाली के पटाखे तो दिखते हैं पर रोज के अदृश्य प्रदूषण का क्या?

    प्रो. चेतन सिंह सोलंकी का कॉलम:दिवाली के पटाखे तो दिखते हैं पर रोज के अदृश्य प्रदूषण का क्या?

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    • Prof. Chetan Singh Solanki’s Column Diwali Firecrackers Are Visible, But What About The Invisible Pollution Of Everyday Life?

    49 मिनट पहले
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    प्रो. चेतन सिंह सोलंकी आईआईटी बॉम्बे में प्रोफेसर

    हर दिवाली जब घरों में दीये जगमगाते हैं और रात के आसमान में पटाखों की धमक और रौनक फैल जाती है, तो एक जानी-पहचानी बहस फिर से शुरू हो जाती है- हमें पटाखे फोड़ने चाहिए या नहीं? न्यूज एंकर, एक्टिविस्ट और यहां तक कि अदालतें भी इस पर अपनी राय देती हैं। एक रात के लिए पूरा देश प्रदूषण पर ध्यान देने लगता है, मानो हमारी सामूहिक पर्यावरणीय चेतना सोने से पहले थोड़ी देर के लिए जाग जाती है। हम बात करते हैं, बहस करते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।

    सच्चाई तो ये है कि केवल एक दिन की दिवाली के पटाखे हमारा दम नहीं घोंटते, बाकी के जो 364 दिन हैं, उनके कारण हमारा पर्यावरण बदलता है। भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन लगभग दो मीट्रिक टन प्रति वर्ष है। अगर इसे हमारे 1.4 अरब लोगों से गुणा करें, तो आपको एक चौंका देने वाला आंकड़ा मिलेगा- हम सालाना अरबों टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करते हैं।

    अब इसकी तुलना दिवाली की रात फोड़ने वाले सभी पटाखों से होने वाले अनुमानित उत्सर्जन से करें। अगर हर भारतीय घंटों पटाखे जलाए, तब भी यह कुल उत्सर्जन एक छोटा-सा अंश ही होगा- शायद दिल्ली के यातायात उत्सर्जन के एक दिन से भी कम!

    धुआं और शोर तो दिखाई देते हैं, लेकिन हम अकसर उस अदृश्य प्रदूषण को नजरअंदाज कर देते हैं, जो हमारी कारों, एयर कंडीशनर, बिजली की खपत करने वाले उपकरणों, आयातित उत्पादों और हमारे आधुनिक जीवन की सुख-सुविधाओं के कारण लगातार बढ़ते उपभोग से उत्पन्न होता है। ये अदृश्य उत्सर्जन दिवाली की रात होने वाले उत्सर्जन की तुलना में हजारों गुना ज्यादा होता है।

    हर बार जब हम एसी चालू करते हैं, ऑनलाइन खाना ऑर्डर करते हैं, कोई नया गैजेट खरीदते हैं या कपड़ों की सेल में एक की जगह दो जोड़ कपड़े खरीदते हैं, तो हम चुपचाप, अदृश्य पटाखे फोड़ते हैं। ये अदृश्य पटाखे कार्बन उत्सर्जन के ऐसे विस्फोट होते हैं, जिन्हें हम सुन नहीं सकते, देख नहीं सकते, परंतु इनका असर हमारे पर्यावरण पर सैकड़ों सालों तक रहता है।

    दिवाली के पटाखों के दिखने वाले धुएं के विपरीत- जो कुछ घंटों में साफ हो जाता है- यह अदृश्य उत्सर्जन हर दिन, जाने-अनजाने जमा होता जा रहा है। इस कारण धरती पर जलवायु परिवर्तन हो गया है। पृथ्वी अब धीरे-धीरे गर्म होती जा रही है और पूरा मौसम-चक्र बदल चुका है।

    असहज करने वाली सच्चाई यह है कि लगभग 85 प्रतिशत रोजमर्रा की मानवीय गतिविधियां- बिजली उत्पादन से लेकर परिवहन, उद्योग और खाना पकाना- यह सब जीवाश्म ईंधन पर निर्भर हैं। इसका मतलब है कि हमारे दैनिक जीवन में सुविधा का लगभग हर कार्य कार्बन उत्सर्जन के कारण ही संभव हो पाता है। एक तरह से कहें तो हमारे दैनिक जीवन के 85% प्रतिशत कार्यों के द्वारा हम लगभग दिन के 85% समय अदृश्य पटाखे फोड़ते हैं।

    इसलिए जब हम वायु प्रदूषण के लिए दिवाली के पटाखों की निंदा करते हैं, तो हमें अपनी उन दैनिक आदतों की भी निंदा करनी होगी, जो वातावरण को सैकड़ों वर्षों के लिए प्रदूषित करती हैं। समस्या दिवाली की एक रात की खुशी नहीं, सालभर चलने वाला अति उपभोग का त्योहार है।

    सच यही है कि जलवायु परिवर्तन कुछ असाधारण घटनाओं से नहीं होता- यह अरबों लोगों की रोजमर्रा की दिनचर्या से होता है। त्रासदी यह नहीं है कि लोग साल में एक बार पटाखे फोड़ते हैं, बल्कि यह है कि हम अनजाने में हर घंटे कार्बन जलाते हैं।

    आधुनिक जीवनशैली ने हर क्रिया- खाना, घूमना, खरीदना, यहां तक कि जश्न मनाने को भी कार्बन उत्सर्जन यानी अदृश्य पटाखों के विस्फोट में बदल दिया है। हमारी सुविधाएं और हमारी अत्यधिक जरूरतें एक तर्ज से शांत विस्फोटक बन गई हैं।

    दिवाली जैसे त्योहार एक आईना हैं। ये बताते हैं कि हम कौन हैं। एक ऐसा समाज- जो दिखाई देने वाले धुएं पर प्रतिक्रिया करता है और अदृश्य नुकसान को नजरअंदाज कर देता है। हमें एक दिन के संयम नहीं, साल भर चलने वाली जाग्रति की जरूरत है। जीवन का हर दिन सचेतन होना चाहिए, तभी हमारी हर दिवाली वास्तव में प्रकाश का उत्सव होगी- न केवल हमारे लिए, बल्कि इस ग्रह के लिए भी। (ये लेखक के निजी विचार हैं)

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  • प्रियदर्शन का कॉलम:वो असंतोष भी खत्म हो, जो  हिंसा की ओर ले जाता है

    प्रियदर्शन का कॉलम:वो असंतोष भी खत्म हो, जो  हिंसा की ओर ले जाता है

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    • Opinion
    • Priyadarshan’s Column: May The Discontent That Leads To Violence Also End.

    49 मिनट पहले
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    प्रियदर्शन लेखक और पत्रकार

    बीते दिनों माओवादी संगठनों से जुड़े कुछ बड़े नेताओं ने जैसे आत्मसमर्पण किया है, उससे लगता है सरकार अपने कहे मुताबिक अगले साल तक माओवाद के उन्मूलन में सफल हो जाएगी। लेकिन माओवाद का खात्मा जितना जरूरी है, उतना ही उन कारकों का भी है, जिनकी वजह से माओवाद पैदा होता है।

    आखिर यह हाल की परिघटना नहीं है, देश के अलग-अलग हिस्सों में, अलग-अलग वर्षों में, अलग-अलग नामों से विकसित अति-वाम आंदोलन वह लाल गलियारा बनाते रहे हैं, जिसे मनमोहन से लेकर मोदी तक देश के लिए सबसे खतरनाक मानते रहे हैं।

    निस्संदेह, किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंसक आंदोलनों की जगह नहीं हो सकती। अगर हम संसदीय लोकतंत्र में भरोसा करते हैं तो हिंसा के रास्ते का समर्थन नहीं कर सकते। वैसे भी हिंसा का अपना एक चरित्र होता है, जो बंदूक थामने वाले को भी बदल डालता है।

    फिल्म ‘हाइवे’ का मार्मिक संवाद है- ‘जब एक गोली चलती है तो दो लोग मरते हैं- जिसे गोली लगती है, वह भी और जो गोली चलाता है वह भी।’ दुनिया भर की हिंसक क्रांतियों का अनुभव बताता है कि उनसे कहीं ज्यादा हिंसक व्यवस्थाएं निकली हैं।

    फिर हिंसक आंदोलन अंततः राज्य की हिंसा को वैधता देते हैं। राज्य आज इतना शक्तिशाली है कि उसकी सत्ता को चे ग्वेरा के छापामार युद्धों वाली रणनीति से पलटा नहीं जा सकता। भारत जैसे विशाल राष्ट्र-राज्य के बारे में यह बात और सच है, जहां अपनी सारी विरूपताओं के बावजूद लोकतंत्र का वृक्ष इतना विराट हो चुका है कि वह अपरिहार्य लगता है।

    लेकिन इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि दुनिया के किसी भी आंदोलन या संघर्ष को बस दमन से नहीं कुचला जा सकता। भारतीय राष्ट्र-राज्य माओवाद को खत्म करे, यह जरूरी है, लेकिन माओवाद के पूरी तरह खात्मे के लिए जरूरी है कि वह असंतोष भी खत्म हो, जो युवाओं को इस राह की ओर ले जाता है। यह भी ध्यान रखना होगा कि माओवाद के खात्मे की मुहिम की चपेट में बेगुनाह लोग न चले आएं, जो अक्सर ऐसी लड़ाइयों में ‘को-लैटरल’ शिकार होते हैं।

    दूसरी बात यह कि अंततः यह संघर्ष इस अंदेशे और सच्चाई से भी वैधता पाता है कि हमारे देश में दशकों से आदिवासियों के, गरीबों के अधिकार छीने गए हैं, उन्हें विस्थापित किया गया है, उनके रोजगार और उनकी आजीविका पर संकट बढ़ता गया है।

    यह साफ है कि जिसे हम विकास कहते हैं, उसके फायदे सभी लोगों तक नहीं पहुंचे हैं। कुछ ने उसका बेतहाशा फायदा उठाया है और बहुत सारे लोग इसके लिए कुचले गए हैं। छत्तीसगढ़ और झारखंड के जंगल बहुत बड़ी आबादी के लिए जीवन का आधार ही नहीं रहे हैं, वे हिंदुस्तान के फेफड़े भी हैं, जो इसकी हवा साफ करते हैं, उसे सांस लिए जाने लायक बनाते हैं। अगर माओवाद के खात्मे के बाद विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों को उद्योग-धंधों की विराट भट्टी में झोंक दिया गया, तो यह इन क्षेत्रों के लिए ही नहीं, पूरे देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा।

    बच्चों के लिए स्कूल हों, बीमारों के लिए अस्पताल, नौजवानों के लिए कामकाज के अवसर और सभी वर्गों के लिए बराबरी और न्याय का आश्वासन- लोकतंत्र अपने न्यूनतम स्वरूप में इस आश्वासन का ही नाम है। लेकिन देश में यह आश्वासन कमजोर पड़ा है और जाति-धर्म-सम्प्रदाय- क्षेत्र के नाम पर विभाजनकारी राजनीति मजबूत हुई है।

    माओवाद हो या असंतोष की दूसरी प्रवृत्तियां और अभिव्यक्तियां- इनको तभी समाप्त किया जा सकता है, जब हम लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत कर सकें। लेकिन सुरक्षा बलों के सहारे माओवाद को खत्म करने के आत्मविश्वास और सरकारी तौर-तरीकों से असहमति रखने वालों को ‘अर्बन नक्सल’ करार देने की वैचारिकी- इन्हें छोड़ना भी नक्सल-मुक्त भारत बनाने के लिए जरूरी है।

    किसी भी संघर्ष को बस दमन से नहीं कुचला जा सकता। यह भी ध्यान रखना होगा कि माओवाद के खात्मे की मुहिम की चपेट में बेगुनाह लोग न चले आएं, जो अक्सर ऐसी लड़ाइयों में दोनों तरफ से ‘को-लैटरल’ शिकार होते हैं। (ये लेखक के निजी विचार हैं)

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  • डी. सुब्बराव का कॉलम:अमेरिका के लिए भारत का  भरोसा फिर से पाना मुश्किल

    डी. सुब्बराव का कॉलम:अमेरिका के लिए भारत का  भरोसा फिर से पाना मुश्किल

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    • D. Subbarao’s Column: It Will Be Difficult For America To Regain India’s Trust

    49 मिनट पहले
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    डी. सुब्बराव आरबीआई के पूर्व गवर्नर

    ट्रम्प की नीतियां भारत को कुछ समय की पीड़ा दे सकती हैं, पर वे अमेरिका को दीर्घकालिक क्षति पहुंचाएंगी। एक अहम रणनीतिक साझेदार को कमजोर कर, अपने यहां महंगाई बढ़ाकर और डॉलर से अलगाव करके ट्रम्प अमेरिका का आर्थिक दबदबा कमजोर करने का जोखिम उठा रहे हैं। इससे चीन के विरुद्ध अमेरिका की हिन्द-प्रशांत रणनीति भी कमजोर होती है।

    भारतीय टैरिफ से नाराज हैं। इसलिए नहीं कि ये टैरिफ कठोर हैं, बल्कि उन्हें लगता है कि वे निशाना बनाए गए हैं। ट्रम्प ने रूस से तेल खरीद के कारण भारत पर अतिरिक्त 25% शुल्क लगाया, लेकिन चीन और यूरोपीय संघ के साथ ऐसा नहीं किया। इतना ही नहीं, ट्रम्प ने यह झूठा दावा भी कर दिया कि भारत उनके कहने पर रूस से तेल लेना बंद करने वाला है।

    भारतीय निर्यात में अमेरिका का हिस्सा 20% है। 50% टैरिफ से कपड़ा, झींगा, हीरा और ऑटो कम्पोनेंट्स जैसे लेबर इंटेंसिव क्षेत्र प्रभावित हो सकते हैं। इससे रोजगारों का नुकसान होगा और युवाओं को नौकरी मिलना मुश्किल हाेगा। विश्लेषकों का अनुमान है कि टैरिफ के कारण भारत की जीडीपी ग्रोथ 30-80 आधार अंकों तक कम होगी।

    यह सब ऐसे समय में हो रहा है, जब भारतीय अर्थव्यवस्था 6% से अधिक की वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ रही है। भारत की वस्तुओं-सेवाओं के लिए बाजार तथा निवेश व तकनीकी के स्रोत के तौर पर अमेरिका ही इस कहानी का केंद्र है। इधर अमेरिकी कम्पनियां भी भारत के प्रतिस्पर्धी आपूर्ति तंत्र पर निर्भर हो गई हैं। ट्रम्प टैरिफ से इस परस्पर संबंध के भी बाधित होने का खतरा है।

    लेकिन यूएस सप्लाई चेन के लिए अहम भारतीय वस्तुओं पर उच्च टैरिफ से अमेरिका में भी कीमतें बढ़ेंगी। ऐसी नीति से अमेरिका का ही नुकसान है और टैरिफ से बढ़ा मूल्य-दबाव ट्रम्प की राजनीतिक पूंजी कमजोर कर सकता है। रूस से हमारी रियायती तेल खरीद ने वैश्विक बाजार में कच्चे तेल की कीमतों को कम किया है।

    इससे परोक्ष तौर पर पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं को लाभ ही हुआ है। इस तेल खरीद के अचानक बंद होने से कीमतें बढ़ सकती हैं। इससे दुनियाभर में महंगाई बढ़ेगी, जिसमें अमेरिका भी शामिल है। इससे ट्रम्प का आर्थिक एजेंडा उलटे कमजोर ही होगा।

    ट्रम्प प्रशासन द्विपक्षीय व्यापार घाटे पर गुस्सा दिखाने के फेर में बड़े लाभों को अनदेखा कर रहा है। भारतीय छात्र अमेरिका में सबसे बड़े विदेशी छात्र समूह के तौर पर वहां की अर्थव्यवस्था में सालाना अरबों डॉलर का योगदान देते हैं। अमेरिकी तकनीकी कम्पनियां भारतीय प्रतिभाओं पर निर्भर हैं।

    इधर, भारत भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर्स का केंद्र बन गया है, जो कम लागत में आईटी सपोर्ट, डिजाइन, अकाउंटिंग, ग्राहक सेवा और अन्य सुविधाएं देकर कॉर्पोरेट लाभ बढ़ाते हैं। टैरिफ इस पारस्परिक इको-सिस्टम में अस्थिरता का खतरा पैदा कर रहे हैं।

    अमेरिका को सबसे बड़ा दीर्घकालिक नुकसान तो उस भारतीय मध्यम वर्ग तक अपनी पहुंच खोने से होगा, जिसके 2030 तक 80 करोड़ से अधिक लोगों का उपभोक्ता बाजार बनने की उम्मीद है। मनमाने टैरिफ से भारत को अलग-थलग करने के गहरे भू-राजनीतिक जोखिम भी हैं। बीते दो दशकों से अमेरिकी सरकारें क्वाड, बढ़ती इंटेलिजेंस शेयरिंग और सप्लाई चेन में भूमिका बढ़ाने जैसे कदमों से चीन के खिलाफ भारत को संतुलनकारी ताकत के तौर पर इस्तेमाल करती रही हैं। आज यह नीति भी जोखिम में है।

    ब्रिक्स के पांच सदस्य- ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका- अमेरिकी दबदबे का सामना करने के लिए साझा तौर पर एकजुट हो रहे हैं। टैरिफ के निर्णय समेत समेत ट्रम्प की अन्य नीतियां डॉलर को दरकिनार कर एक वैकल्पिक भुगतान प्रणाली विकसित करने के प्रयास बढ़ा रही हैं। इस मोर्चे पर आंशिक सफलता भी मिली तो इसके दूरगामी प्रभाव होंगे।

    अमेरिका डी-डॉलराइजेशन को तेज करते हुए वैश्विक व्यापार से अपनी पकड़ को कमजोर कर रहा है। ऐसे में भारत को निर्यात बाजार को बढ़ाना और घरेलू उद्योगों को मजबूती देना चाहिए। इससे आत्मनिर्भरता में मदद मिलेगी। (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)

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    नीरजा चौधरी का कॉलम:बिहार चुनाव एक रोचक मोड़ पर आ गए हैं

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    • Neerja Chowdhary’s Column Bihar Elections Have Reached An Interesting Juncture

    49 मिनट पहले
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    नीरजा चौधरी वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार

    आम तौर पर चुनाव-प्रचार शुरू होते ही गठबंधनों के अंदरूनी मतभेद मिट जाते हैं। लेकिन बिहार में इस बार इससे उलटी ही गंगा बह रही है! वहां पर ये मतभेद और ज्यादा उभरकर सामने आ रहे हैं। यह असाधारण है कि राजद-कांग्रेस के नेतृत्व वाला महागठबंधन नामांकन दाखिल करने की आखिरी तारीख (पहले चरण के मतदान के लिए) से पहले सीटों के बंटवारे तक पर सहमति नहीं बना पाया है।

    और यह तब है, जब इस बार का मुकाबला कांटे की टक्कर जैसा माना जा रहा था। इन चुनावों में महागठबंधन को नीतीश कुमार के शासन के खिलाफ 20 सालों की सत्ता विरोधी लहर का भी फायदा मिलता हुआ माना जा रहा था और कुछ समय पहले ही राहुल गांधी-तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाली वोटर अधिकार यात्रा को भी लोगों की उत्साहजनक प्रतिक्रिया मिली थी।

    यह तो खैर अपेक्षित ही था कि कांग्रेस- जो हिंदी पट्टी में अपनी स्थिति को फिर से मजबूत करना चाहती है- सीटों के लिए तगड़ा मोलभाव करेगी। लेकिन यह समझ से परे था कि वह इस तरह की हरकतें करने लगेगी, जिससे वोटर यात्रा के जरिए उसके पक्ष में बनी लय ही खत्म हो जाए। इससे यह संकेत मिलता है कि महागठबंधन के भीतर भी अनेक टकराव हैं।

    2020 में भी कांग्रेस ने 70 सीटें मांगी थीं और उसे मिली भी थीं, लेकिन वो केवल 19 सीटें ही जीत पाई थी। इसका खामियाजा महागठबंधन को भुगतना पड़ा, जो एनडीए से मामूली अंतर से चुनाव हार गया। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव ने अपनी वोटर अधिकार यात्रा के दौरान तालमेल तो दिखाया, लेकिन इसके बावजूद वो अपने मतभेदों को सुलझाने में असमर्थ महसूस कर रहे हैं, और इससे उनके सहयोगी दुविधा में हैं।

    बिहार को लेकर कांग्रेस के निर्णय में असमंजस की स्थिति है। उसे उन्हीं सीटों के बारे में अधिक यथार्थवादी होना चाहिए, जिन्हें वह जीत सकती थी और जिनके लिए जमकर सौदेबाजी कर सकती है। ये सच है कि राहुल गांधी की ने बिहार में कांग्रेस के लिए सद्भावना पैदा की है, लेकिन इस जनसमर्थन को वोटों में बदलने के लिए उनके पास फिलहाल एक संगठनात्मक ढांचा नहीं है।

    कांग्रेस पार्टी अपनी प्राथमिकताओं को लेकर भी भ्रम में दिख रही है। यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि बिहार में उसकी पहली प्राथमिकता भाजपा/एनडीए को हराना है या कांग्रेस को पुनर्जीवित करना है? महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में तेजस्वी यादव को समर्थन देने से पार्टी ने जो आनाकानी की है, उससे भी यह धारणा बनी है कि महागठबंधन अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के बारे में ही स्पष्ट नहीं है।

    बात केवल महागठबंधन की ही नहीं है। मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर असमंजस की स्थिति एनडीए में भी है। वह दूसरी सम्भावनाओं के लिए दरवाजा खुला रखे हुए है। अमित शाह ने ये तो स्पष्ट रूप से कहा कि एनडीए नीतीश के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहा है, लेकिन अगर एनडीए सत्ता में आता है तो नीतीश के मुख्यमंत्री बनने के बारे में उन्होंने साफ शब्दों में कुछ नहीं कहा।

    शाह ने एक प्रक्रिया का पालन करने की बात कह दी कि एनडीए के सहयोगी दलों के नवनिर्वाचित विधायक मिलेंगे और तय करेंगे कि उनका नेता कौन होगा। उनके शब्दों का यह अर्थ निकाला गया है कि बिहार का अगला एनडीए मुख्यमंत्री अभी एक खुला प्रश्न है।

    हालांकि बिहार की चुनावी लड़ाई को नीतीश बनाम तेजस्वी माना जा रहा है, लेकिन अजीब बात यह है कि दोनों ही गठबंधन अपने सम्भावित मुख्यमंत्रियों के बारे में स्पष्ट नहीं हैं- और यही कहानी का दिलचस्प पहलू है। इस भ्रम का कारण बिहार की बदलती राजनीति है। ऐसे में यह सम्भव है कि बिहार के नतीजे दूसरे राज्यों के लिए ट्रेंडसेटर साबित हों।

    लालू और नीतीश ने मिलकर 35 वर्षों तक बिहार पर शासन किया है और क्षेत्रीय दलों का नेतृत्व किया है। ये दल बिहार में कभी प्रभावशाली रही कांग्रेस को नुकसान पहुंचाकर ही उभरे हैं। उन्होंने ऐसा सामाजिक न्याय की राजनीति से किया। आज मुख्यधारा की दोनों पार्टियां क्षेत्रीय संगठनों के संबंध में अपनी दावेदारियां पेश कर रही हैं। कांग्रेस चूंकि पुनरुत्थान की कोशिश कर रही है, इसलिए वह बड़ी संख्या में जीतने वाली सीटों के लिए कड़ा मोलभाव कर रही है। जबकि राजद को डर है कि कांग्रेस का पुनरुत्थान उसकी कीमत पर होगा।

    दूसरी मुख्यधारा की पार्टी भाजपा- जो जाति-आधारित सामाजिक न्याय के विपरीत हिंदू राष्ट्रवाद का नारा बुलंद करके उभरी थी- इस बार अपनी सहयोगी जद(यू) के मुकाबले अधिक दावेदारी पेश कर रही है। अगर एनडीए विजयी होता है तो इस बार भाजपा ही सरकार का नेतृत्व करना चाहेगी। पिछली बार तो उसने जद(यू) को मुख्यमंत्री पद लेने की अनुमति दे दी थी, जबकि उसने केवल 43 सीटें जीती थीं और भाजपा ने 74 सीटें हासिल की थीं। जबकि जद(यू) ने 115 सीटों और भाजपा ने 110 सीटों पर चुनाव लड़ा था।

    इस बार भाजपा और जद(यू) दोनों ही 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं। लेकिन भाजपा को चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोजपा (रामविलास) का समर्थन प्राप्त होगा, जिसे 29 सीटें दी गई हैं। चिराग पासवान को आगे करने का उद्देश्य दलित वोटों को भाजपा/एनडीए के पक्ष में एकजुट करना है।

    दलितों का एक वर्ग 2024 के लोकसभा चुनावों में महागठबंधन की ओर झुक गया था, इसलिए अब भाजपा दलित फैक्टर पर ध्यान केंद्रित करना चाहती है। चिराग पासवान की पासवान समुदाय (राज्य की आबादी का 5%) पर पकड़ है और जीतन मांझी की मुसहर समुदाय (आबादी का 3%) पर पकड़ है। वैसे नीतीश ने अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए एक बार फिर महिला कार्ड खेला है। उन्होंने मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत 1.1 करोड़ महिलाओं को 10,000 रु. हस्तांतरित कर दिए हैं।

    क्या नीतीश एक बार फिर लालू के खेमे में जा सकते हैं? अगर नीतीश को मुख्यमंत्री पद से वंचित कर दिया जाता है, तो क्या वे एक बार फिर पलटी मारकर राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन से हाथ मिला सकते हैं? यह मानना ​​तो खैर नासमझी होगी कि वे पहले ही दूसरे पक्ष के सम्पर्क में नहीं होंगे या अपने विकल्प खुले नहीं रखेंगे। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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