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  • जब शुभमन गिल ने संकट में डाल दिया था रोहित शर्मा  का करियर, मैदान पर भिड़े थे दोनों

    जब शुभमन गिल ने संकट में डाल दिया था रोहित शर्मा का करियर, मैदान पर भिड़े थे दोनों

    जब शुभमन गिल ने संकट में डाल दिया था रोहित शर्मा का करियर, मैदान पर भिड़े थे दोनों

  • 'Priority to safeguard national interest,' says India on Trump’s Russian oil claim

    'Priority to safeguard national interest,' says India on Trump’s Russian oil claim

    Responding to US President Donald Trump’s claim that Prime Minister Narendra Modi assured him India would stop purchasing oil from Russia, New Delhi has said that India’s consistent priority is to safeguard the interests of Indian consumers in a volatile energy scenario.

    Also read | Trump claims Modi assured him India will stop buying Russian oil

    “India is a significant importer of oil and gas. It has been our consistent priority to safeguard the interests of the Indian consumer in a volatile energy scenario. Our import policies are guided entirely by this objective,” Ministry of External Affairs’ official spokesperson Randhir Jaiswal said in a statement on Thursday (October 16).

    India defends energy policy

    “Ensuring stable energy prices and secured supplies have been the twin goals of our energy policy. This includes broad-basing our energy sourcing and diversifying as appropriate to meet market conditions,” the statement added.

    “Where the US is concerned, we have for many years sought to expand our energy procurement. This has steadily progressed in the last decade. The current Administration has shown interest in deepening energy cooperation with India. Discussions are ongoing,” it said.

    This comes after the US President claimed that Prime Minister Modi had assured him that India would stop buying oil from Russia. “He’s assured me there will be no oil purchases from Russia. He can’t do it immediately. It’s a little bit of a process, but the process is going to be over soon,” he said.

    Rahul Gandhi targets PM Modi

    Meanwhile, Lok Sabha Leader of Opposition Rahul Gandhi launched a sharp attack on Prime Minister Narendra Modi. Taking to X on Thursday, the Congress MP accused the Prime Minister of being afraid of Trump and the United States.

    Also read | Rahul slams PM Modi after Trump’s claim on India stopping Russian oil imports

    In his post, Rahul alleged that Modi is “frightened of Trump” after allowing the US president to “decide and announce that India will not buy Russian oil.” He further said that Modi continues to “send congratulatory messages despite repeated snubs.”

    India is the second biggest purchaser of Russian oil, after China, and Trump punished India with higher tariffs in August. The US President levied 50 per cent tariffs on India, among the highest in the world, including an additional 25 per cent duties on account of the purchase of Russian oil.

  • शेखर गुप्ता का कॉलम:फिल्म ‘होमबाउंड’ एक सबक सिखाती है

    शेखर गुप्ता का कॉलम:फिल्म ‘होमबाउंड’ एक सबक सिखाती है

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    • Shekhar Gupta’s Column: The Film ‘Homebound’ Teaches A Lesson

    शेखर गुप्ता का कॉलम:फिल्म ‘होमबाउंड’ एक सबक सिखाती है

    1 दिन पहले
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    शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’ - Dainik Bhaskar
    शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’

    तीन बातों के मेल ने भारत में जातियों और अल्पसंख्यकों से जुड़े ऐसे मसले उभारे हैं, जिन्हें वह संविधान निर्माण के 75 साल बीत जाने के बाद भी हल करने में विफल रहा है। ये तीन बातें हैं- भारत के दलित मुख्य न्यायाधीश पर उनकी ही अदालत में जूता फेंका गया; हरियाणा में एक दलित आईपीएस अफसर ने खुद को गोली मार कर खुदकशी कर ली और यह आक्रोश भरा नोट लिख गए कि किस तरह वर्षों से उनके साथ भेदभाव किया जाता रहा और उन्हें प्रताड़ित किया जाता रहा और बॉलीवुड के प्रभावशाली फिल्म निर्माता नीरज घायवान की फिल्म ‘होमबाउंड’ समृद्ध लोगों के बीच भी विरोधाभासी रूप से काफी सफल रही।

    वैसे, यह फिल्म ‘सैयारा’, ‘पठान’, ‘जवान’, ‘एनिमल’, ‘बाहुबली’ या ‘कांतारा’ जितनी हिट नहीं रही। इसे 100 करोड़ की ‘ओपनिंग’ की सोचकर नहीं बनाया गया था। फिर भी धीमी शुरुआत के बाद इसने बातों-बातों में रफ्तार पकड़ ली- खासकर प्रोफेशनलों के ऊंचे तबके और आठ अंकों में वार्षिक पैकेज पाने वाले युवा उद्यमियों, सामाजिक-आर्थिक रूप से प्रभावशाली वर्ग की आपसी बातचीत के जरिए।

    इसका प्रमाण है इसकी स्क्रीनिंग के दौरान महानगरों में मल्टीप्लेक्सों के खचाखच भरे छोटे और महंगे हॉल। इन समूहों में जो ‘सोशल’ गप्पें होती हैं, उनमें मैंने नहीं सुना कि फिल्म उबाऊ, बड़बोली, राजनीतिक है। या यह कि आरक्षण ने असमानता दूर नहीं की, तो हम क्या कर सकते हैं?

    इसके विपरीत, आप पाएंगे कि ‘होमबाउंड’ के दर्शक ग्रामीण भारत के तीन गरीब, पढ़े-लिखे, स्मार्ट और महत्वाकांक्षी युवा किरदारों के संघर्ष से सहानुभूति रखते हैं। दर्शक इस बात को कबूल करते हैं कि यह ‘सिस्टम’ इन युवाओं को किस तरह धोखा देने के लिए ही बना है। तो हम क्या करें?

    ध्यान रहे कि ये तीनों युवा भारत की एक तिहाई आबादी, दलितों और मुसलमानों के प्रतिनिधि हैं। शिक्षा, आरक्षण और सरकारी नौकरी समता और सम्मान दिलाने के लिए है, लेकिन हम इससे कितने दूर हैं, यह सीजेआई और हरियाणा के एडीजीपी की घटनाओं से साफ है। अगर एक मुख्य न्यायाधीश, आइपीएस, आईएएस अधिकारी को सम्मान और समता नहीं मिलती तो जााहिर है कि हमारी व्यवस्थागत नाइंसाफियां और पूर्वग्रह इतने गहरे धंसे हैं कि 75 वर्षों की आरक्षण व्यवस्था से भी दूर नहीं हुए हैं।

    ‘होमबाउंड’ के तीन दोस्त- चंदन कुमार (वाल्मीकि समाज के), मोहम्मद शोएब अली (मुस्लिम) और सुधा भारती (दलित)- पुलिस सिपाही की नौकरी के लिए कोशिश कर रहे हैं। इनकी भूमिका क्रमशः विशाल जेठवा, ईशान खट्टर और जाह्नवी कपूर ने निभाई है।

    इस कहानी ने मुझे बाबू जगजीवन राम से 1985 में हुई बातचीत की याद दिला दी, जब मैंने अगड़ी जातियों के पहले आरक्षण विरोधी आंदोलन के बारे में ‘इंडिया टुडे’ के लिए रिपोर्टिंग करते हुए उनका इंटरव्यू लिया था। उस आंदोलन ने मंडल कमीशन को फिर से चर्चा में ला दिया था। जगजीवन राम सत्ता में नहीं थे और उनके पास बात करने के लिए वक्त भी था। उन्होंने आरक्षण के पक्ष में सबसे जोरदार तर्क प्रस्तुत किए थे।

    उन्होंने आगरा के अपने एक पुराने मित्र, अनुसूचित जाति (तब दलित शब्द चलन में नहीं था) के जूता उद्यमी की कहानी बताई थी। उनके यह दोस्त करोड़ों के मालिक थे। फिर भी वे जगजीवन राम से विनती कर रहे थे कि वे उनके बेटे की उत्तर प्रदेश पुलिस में एएसआई की नौकरी लगवा दें।

    बाबूजी ने उनसे कहा कि आपके पास इतनी दौलत है, आप अपने बेटे को एक मामूली एएसआई क्यों बनाना चाहते हैं? उनका जवाब था : ‘मैं कितना भी अमीर क्यों न हो जाऊं, कोई ब्राह्मण मेरे बेटे को इज्जत नहीं देगा, लेकिन वह एक एएसआई बन गया तो ब्राह्मण समेत सारे जूनियर उसे सलाम करेंगे’।

    ‘होमबाउंड’ फिल्म में तस्वीर थोड़ी पेचीदा है। चंदन सामान्य कोटे से परीक्षा देना चाहता है। उसका कहना है कि अगर उसने यह जाहिर कर दिया कि वह वाल्मीकि समाज से है, तो पुलिस महकमे में वे लोग उसे सफाई कर्मचारी बना देंगे। सुधा ग्रेजुएट बनने के बाद यूपीएससी की परीक्षा देना चाहती है और शोएब इतना स्मार्ट है कि घरेलू सामान की कंपनी में चपरासी की नौकरी करने के बावजूद बिक्री करवाने में अपने टाईधारी मैनेजरों को भी पीछे छोड़ देता है।

    उसका ‘बिग बॉस’ उसके काम से हैरान है और उसे ‘बेचू’ कहकर बुलाता है, जो कुछ भी बेचने में माहिर है। शोएब भी टाईधारी मैनेजर बनने वाला है कि तभी बॉस के घर में एक पार्टी में नशे में धुत लोग क्रिकेट मैच देखते हुए उसे अपमानित करते हैं। वह भी खुशी मना रहा होता है, लेकिन उसका मखौल उड़ाते हुए पूछा जाता है कि उसका दिल तो टूट गया होगा क्योंकि भारत ने तो पाकिस्तान को हरा दिया?

    दलित और मुसलमान, दोनों को उनके पैतृक अतीत के बोझ के नीचे परस्पर विपरीत तरीके से कुचला जाता है। दलितों को पीढ़ियों से चले आ रहे अन्याय का बोझ उठाना पड़ता है, जिसके लिए उन्हें प्रताड़ित करने वाली जातियों को खुद में बदलाव लाना चाहिए।

    इसी तरह, मुसलमानों को अपने मुगल/अफगान/तुर्क पूर्वजों और जिन्ना के कारण बहुसंख्य हिंदुओं पर किए गए अत्याचारों और हुकूमत का हिसाब चुकाना पड़ता है। यह दोमुंहा हथियार चंदन, शोएब और सुधा और एक तिहाई भारत की तकदीर पर मिलकर वार करता है।

    इस फिल्म ने जनसांख्यिकी वाले पहलू को छुआ है, जिसे हम अक्सर असंवेदनशील और उग्र मानते हैं, लेकिन संयोग से यह वास्तविक जीवन की कहानियों से मेल खाती है, जिनमें भुक्तभोगी वे हैं, जिन्हें सबसे विशेषाधिकार प्राप्त पद मिले। मैं आपको भारत के पहले दलित सीजेआई केजी बालकृष्णन की नियुक्ति के दिन ही किए गए उनके अपमान की याद दिलाना चाहूंगा। इस प्रवृत्ति की हम अनदेखी नहीं कर सकते, खासकर तब जब यह तीन में से एक भारतीय को प्रभावित करती हो।

    एक तिहाई भारत की तकदीर पर मिलकर वार… दलितों को पीढ़ियों से चले आ रहे अन्याय का बोझ उठाना पड़ता है। इसी तरह, मुसलमानों को अपने मुगल/अफगान/ तुर्क पूर्वजों के अत्याचारों का हिसाब चुकाना पड़ता है। यह चंदन, शोएब और सुधा सहित एक तिहाई भारत की तकदीर पर मिलकर वार है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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  • मनोज जोशी का कॉलम:अमेरिका की पाक नीति से तालमेल बैठाना कठिन है

    मनोज जोशी का कॉलम:अमेरिका की पाक नीति से तालमेल बैठाना कठिन है

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    • Manoj Joshi’s Column: It’s Difficult To Reconcile America’s Pakistan Policy

    मनोज जोशी का कॉलम:अमेरिका की पाक नीति से तालमेल बैठाना कठिन है

    1 दिन पहले
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    मनोज जोशी विदेशी मामलों के जानकार - Dainik Bhaskar
    मनोज जोशी विदेशी मामलों के जानकार

    भारत-अमेरिका ट्रेड डील के आसार नजर नहीं आ रहे। अमेरिका में निर्यातित अधिकतर चीजों पर हमें 50% टैरिफ चुकाना पड़ रहा है। वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल का कहना है नवंबर तक समझौता हो सकता है। लेकिन ऐसा तो वे कई महीनों से कह रहे हैं। स्पष्ट नहीं है आगे क्या होगा?

    हाल ही में भारत ने रूस, चीन और अन्य देशों के साथ मिलकर ट्रम्प के अफगानिस्तान के बगराम एयरबेस पर फिर से अमेरिकी सेनाओं की तैनाती के कदम का विरोध किया था। मॉस्को में हुई फॉर्मेट कंसल्टेशन की बैठक में अफगानिस्तान, भारत, ईरान, पाकिस्तान, चीन, रूस ने कहा कि वे किसी देश द्वारा अफगानिस्तान और पड़ोसी राज्यों में अपने सैन्य ढांचों की तैनाती के कदमों का विरोध करते हैं। बयान में बगराम या अमेरिका का नाम नहीं था, लेकिन साफ तौर पर संदेश ट्रम्प के लिए था।

    इसी के साथ, अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को उन देशों की सूची में शामिल करने का फैसला भी सामने आया, जिन्हें अत्याधुनिक मिसाइल एआईएम-120डी का एक्सपोर्ट वर्जन मिलेगा। यह मिसाइल अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को पहले ही दिए जा चुके एफ-16 विमानों में इस्तेमाल होती है।

    कथित तौर पर 2019 में भारत के विंग कमांडर अभिनंदन का मिग-21 इसी मिसाइल से गिराया गया था। हालांकि, अमेरिकी दूतावास ने इस खबर से इनकार करते हुए कहा कि पाकिस्तान को महज उसके मौजूदा भंडार को बनाए रखने के लिए ही मिसाइलें दी जा रही हैं। एआईएम जैसी मिसाइलें लड़ाकू विमानों की दृश्य सीमा से परे के लक्ष्यों के लिए भी काम आती हैं। भारत-पाकिस्तान के बीच हाल के युद्ध में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी।

    ये घटनाक्रम ऐसे वक्त पर सामने आया है, जब ट्रम्प का झुकाव पाकिस्तान की ओर बढ़ रहा है। पाकिस्तान से महत्वपूर्ण खनिजों की पहली खेप अमेरिका पहुंच चुकी है। याद करें कि पाकिस्तान में खनिज की प्रोसेसिंग सुविधाएं विकसित करने के लिए यूएस स्ट्रैटेजिक मेटल्स (यूएसएसएम) और पाकिस्तान की सैन्य फर्म फ्रंटियर वर्क्स ऑर्गेनाइजेशन के बीच 500 मिलियन डॉलर के निवेश समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। व्हाइट हाउस ने पिछले महीने एक तस्वीर जारी की थी, जिसमें मुनीर ट्रम्प को रेयर-अर्थ खनिजों का बॉक्स दिखा रहे थे। इनमें से अधिकतर खनिज बलूचिस्तान प्रांत में मिलते हैं, जहां पाकिस्तानी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह चल रहा है।

    ट्रम्प से मुलाकात के पहले पाकिस्तानी और अमेरिकी अधिकारियों ने ग्वादर के पास पासनी में एक बंदरगाह स्थापित करने पर भी चर्चा की। जाहिर है कि ऐसा दोनों देशों के बीच महत्वपूर्ण खनिज सौदे को आगे बढ़ाने के लिए हुआ होगा। हालांकि, इस प्रस्ताव को लेकर कोई पुष्टि या खंडन सामने नहीं आया है।

    मछुआरों का यह गांव रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है और यहां पाकिस्तान का एक नौसेना हवाई स्टेशन और सैन्य एयरपोर्ट है। पासनी की ग्वादर से महज 110 किमी और ईरान-पाक सीमा से 160 किमी दूरी होने के कारण यह डील भू-राजनीतिक दृष्टि से अहम है।

    भारत के हितों के विरुद्ध उठाए एक और कदम के तहत अमेरिका ने ईरान पर लगाए प्रतिबंधों के तहत भारत को अतीत में दी गई चाबहार बंदरगाह के संचालन की छूट भी वापस ले ली है। अफगानिस्तान से वापसी के बाद अमेरिका नहीं चाहता कि भारत इसका इस्तेमाल जारी रखे। लेकिन तालिबान सरकार से सम्पर्क बढ़ने के बाद भारत के लिए यह बंदरगाह ईरान और मध्य एशिया के साथ व्यापार के लिए महत्वपूर्ण है।

    बंदरगाह विकसित करने का मुख्य उद्देश्य पाकिस्तान की अड़चन को दरकिनार करना था, जो भारत द्वारा जमीन के जरिए पश्चिम एशिया में किए जाने वाले व्यापार के बीच आ रहा था। भारत के पास रणनीतिक तौर पर इस प्रकार की अमेरिकी नीति से तालमेल बैठाने की ज्यादा गुंजाइश अब बची नहीं है।

    कई लोग सोचते हैं कि भारत को संयम बनाए रखना चाहिए। लेकिन ट्रम्प पाकिस्तान के साथ लगातार रिश्ते बढ़ा रहे हैं। ऐसे में भारत के पास रणनीतिक तौर पर इस अमेरिकी नीति से तालमेल बैठाने की ज्यादा गुंजाइश नहीं है। (ये लेखक के निजी विचार हैं)

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  • मेघना पंत का कॉलम:तलाक शर्मनाक नहीं, दहेज प्रताड़ना सहना शर्मनाक है

    मेघना पंत का कॉलम:तलाक शर्मनाक नहीं, दहेज प्रताड़ना सहना शर्मनाक है

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    • Meghna Pant’s Column: Divorce Isn’t Shameful, Enduring Dowry Harassment Is.

    मेघना पंत का कॉलम:तलाक शर्मनाक नहीं, दहेज प्रताड़ना सहना शर्मनाक है

    1 दिन पहले
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    मेघना पंत, पुरस्कृत लेखिका, पत्रकार और वक्ता - Dainik Bhaskar
    मेघना पंत, पुरस्कृत लेखिका, पत्रकार और वक्ता

    ज्यादा पुरानी बात नहीं है, जब नोएडा में एक महिला को उसके पति और सास ने जला दिया था। उसके सात साल के बेटे ने कांपती हुई आवाज में गवाही दी थी कि पापा ने मम्मी को लाइटर से जला दिया। फिर नवी मुम्बई में भी एक आदमी ने अपनी बेटी के सामने अपनी पत्नी को जिंदा जला दिया।

    बेंगलुरु में एक आदमी ने अपनी पत्नी को कथित रूप से इसलिए मार दिया, क्योंकि उसका रंग बहुत “डार्क’ था। एक और खौफनाक मामले में, एक आदमी ने अपनी पत्नी से कहा कि अगर वह उसके “काबिल’ बनना चाहती है तो उसे नोरा फतेही जैसी दिखना होगा!

    ये मामूली घटनाएं नहीं हैं, ये संगठित रूप से हत्याओं के अनवरत प्रयास हैं! और यह भारत में हर घंटे हो रहा है- देश में हर साल 7,000 से ज्यादा महिलाओं की हत्या होती है। यानी हर दिन 20 जिंदगियां खत्म हो जाती हैं। हमारे कोई कदम उठाने से पहले और कितनी रसोइयां इसी तरह महिलाओं के उत्पीड़न से सुलगती रहेंगी? कम से कम दहेज हत्याओं के लिए तो अब निर्भया जैसा क्षण आ पहुंचा है।

    2012 में सामूहिक दुष्कर्म के उस चर्चित हादसे के बाद भारत सरकार ने दुष्कर्म सम्बंधी कानूनों को कड़ा किया और लैंगिक हिंसा के साथ सख्ती से निपटने के लिए कदम उठाए थे। हमें अब उसी तरह के सख्त कदमों की जरूरत है। दहेज हत्याओं के लिए कड़ी सजाएं दी जाएं।

    अगर कोई परिवार किसी विवाहिता से नगदी, कार या कॉस्मेटिक सर्जरी की मांग “अधिकार’ के तौर पर करता है तो उसे भी कानून का पूरा डर होना चाहिए। यहां प्रश्न किसी से बदला लेने का नहीं, बल्कि अपराधों की रोकथाम का है। जब क्रूरता इतने व्यवस्थित और संगठित रूप से की जा रही है तो उसके लिए कठोरतम सजा ही उपयुक्त है।

    यहां हमें इस प्रच​लित नैरेटिव पर भी बात करनी चाहिए कि दहेज कानूनों का दुरुपयोग ​किया जाता है। जबकि हकीकत यह है कि हरेक झूठे और फर्जी मामले की सुर्खी के पीछे सैकड़ों ऐसी दहेज प्रताड़नाएं होती हैं, जो कहीं दर्ज नहीं होतीं।

    इस तरह के मामलों में कम सजाएं होने का मतलब अपराधियों का निर्दोष होना नहीं है, इसका मतलब है कि व्यवस्था पीड़िताओं के खिलाफ है। सबूत जला दिए जाते हैं, गवाहों को चुप करा दिया जाता है, घरों की चारदीवारी के भीतर हुए अपराधों को साबित करना वैसे भी मुश्किल है।

    यह भी याद रहे कि दहेज प्रताड़ना गांव-देहात में होने वाली कोई दुर्लभ घटना नहीं है; यह प्रवृत्ति हमारे शहरों में फल-फूल रही है। ससुराल वाले अब इम्पोर्टेड एसयूवी, विदेश यात्राओं, यहां तक कि दुल्हनों के लिए कॉस्मेटिक एन्हांसमेंट तक की भी मांग करते हैं।

    यह वैसी पितृसत्ता है, जो उपभोक्तावाद से लैस होकर होकर जघन्य बन गई है। लेकिन बात केवल कानून तक ही सीमित नहीं है। हिंसा की घटनाएं इसलिए भी पनपती हैं, क्योंकि हम- एक समाज के रूप में इसमें सहभागी हैं। दहेज देने वाले माता-पिता अपनी बेटियों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं; वे उनके उत्पीड़न, और कभी-कभी उनकी हत्या को भी जाने-अनजाने अपने दुर्बलता और अन्यमनस्कता से बढ़ावा दे रहे हैं। दहेज देना अपनी स्वयं की बेटी की प्रताड़ना का प्रबंध करना है, इसलिए इसे एक परम्परा समझना बंद करें। यह गैरकानूनी है। इसके बजाय, उन पैसों का अपनी बेटी की शिक्षा, बचत, निवेश और कौशल में निवेश करें।

    कानूनों को भी सिर्फ सुधारात्मक ही नहीं, निवारक भी होना चाहिए। दहेज निषेध अधिनियम के तहत दहेज मांगना अपराध है, लेकिन पुलिस शादी हो जाने तक शायद ही कभी एफआईआर दर्ज करती है। इससे महिलाएं एब्यूसिव घरों में चली जाती हैं। हमें बेहतर प्रवर्तन, पुलिस की सख्त जवाबदेही और कानूनी साक्षरता अभियानों की जरूरत है, ताकि महिलाओं को अपने अधिकारों का पता चले। सरकारों को भी शादी के खर्चों पर भी अब कानूनी सीमा लगानी चाहिए।

    एब्यूज़ का पहला संकेत मिलते ही प्रतिकार करें। समाज के फैसले के बजाय अपनी जिंदगी चुनें। हमें अलगाव और स्वतंत्र जीवनयापन को सामान्य बनाना होगा। वरना हम हत्याओं के मूकदर्शक ही नहीं, सहयोगी बन जाएंगे। (ये लेखिका के निजी विचार हैं)

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  • रश्मि बंसल का कॉलम:अपने प​रिवार के अलावा इस समाज के लिए भी कुछ कीजिए

    रश्मि बंसल का कॉलम:अपने प​रिवार के अलावा इस समाज के लिए भी कुछ कीजिए

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    • Rashmi Bansal’s Column: Do Something For Society Beyond Your Family

    रश्मि बंसल का कॉलम:अपने प​रिवार के अलावा इस समाज के लिए भी कुछ कीजिए

    5 घंटे पहले
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    रश्मि बंसल, लेखिका और स्पीकर - Dainik Bhaskar
    रश्मि बंसल, लेखिका और स्पीकर

    दीवाली की सफाई हर घर में होती है। मम्मियां रोती हैं- एक साल में ये कितना कूड़ा-करकट जमा हो गया। अब उठो, फोन छोड़ो, अपने हिस्से का काम करो। खोलो अलमारियां और देखो, सामान पुकार रहा है। हमें इस्तेमाल करो, या फिर हमें मुक्ति दो।

    वो बैंगनी रंग की ड्रेस, जो आपने सेल में खरीद तो ली पर पहनी नहीं। जिसकी कमर टाइट है, हां वही। विदा कीजिए उसे प्यार से, किसी और की अमानत है। जो दे ना पाओ तो लानत है। वो पजामा जिसमें चार छेद हो गए हैं, उसको घसीटना बंद करें। पोंछे की सख्त जरूरत है, काट लो, अच्छा मुहूर्त है।

    चलते हैं स्टडी रूम में, जहां एक जमाने में दो-चार ड्रॉअर कागज से भर जाती थीं। चिट्ठी-पत्री, रसीदें, इत्यादि, इत्यादि। अब वही हाल ईमेल के इनबॉक्स का हो गया है। तो एक-आध दिन इस जंक को हटाने में लगाएं। 4102 अनरीड मेल्स डिलीट करने से आपको काफी सुकून मिलेगा।

    अब आते हैं असली धूल-मिट्टी पे, जो जाने कैसे कोने-कोने में फंसी हुई मिलती है। इस टेबल के पीछे, उस बेड के नीचे। ऊपर देखो तो मकड़ी का जाल, और सोफे के अंदर डॉगी के बाल। पंखे की तो बात ही न पूछें। उसका तो बेचारा बुरा है हाल। सोचने की बात ये है कि पंखा अपनी जगह पर, अपनी रफ्तार से अपनी ड्यूटी निभा रहा है। लेकिन फिर भी उस पर धूल बैठ जाती है, और वो काला दिखने लगता है।

    इसी तरह हम अपनी जिंदगी में अपनी रफ्तार से चल रहे हैं, अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं। लेकिन आस-पास के वातावरण से हम भी प्रभावित हो जाते हैं। बाहर की धूल-मिट्टी तो हम नहाकर साफ कर लेते हैं, मगर जो कचरा मन में इकट्ठा हो जाता है, उसका क्या? सोशल मीडिया की बेकार की बातें, दूसरों के विचार, उनके संस्कार, न चाहते हुए भी हमारी सोच पर कालिख जम जाती है। इसे भी तो साफ करना होगा।

    कालिख की बात करें तो काले धन का जिक्र तो करना पड़ेगा। नोटबंदी के बाद कुछ दिनों तक थोड़ा संयम रहा, अब फिर वही प्रथा जोर-शोर से चल रही है। शायद इस वजह से कि हर कोई कर रहा है, तो मैं क्यों नहीं। लेकिन जरा सोचिए, क्या आप लक्ष्मी जी को सही मान-सम्मान दे रहे हैं?

    मेहनत से कमाए धन और चोरी के धन में फर्क होता है। बड़े-बड़े करोड़पति जब मंदिर में पैसे चढ़ाते हैं तो क्या वो श्रद्धाभाव माना जाएगा? या फिर अपनी चोरी के पैसों से भगवान को कमीशन? सोने के पलंग पर ऐसे इंसान को वो चैन की नींद नहीं आएगी, जो एक ईमानदार नागरिक को आती है।

    खैर, ऐसा नहीं कि सफाई का हर काम बोझिल है। कभी सामान छांटते हुए कुछ ऐसी चीज मिल जाती है, जिससे मन खुशी से झूम उठता है। आपके सोने के झुमके का पेंच, जो किसी कोने में लुढ़क के लुप्त हो गया था। या फिर बचपन में लिखी हुई एक डायरी जिसे पढ़कर पुरानी यादें ताजा हो गईं। ऐसे अनमोल रतन जब मिलें, इन्हें सम्भाल के रखिए। कागज फट जाता है, फोटो का रंग उड़ जाता है, इसलिए स्कैन करके सुरक्षित कीजिए। ताकि ये सुनहरी यादें कहीं खो ना जाएं।

    सफाई के बाद आता है समय सजावट का। फूलमाला, रंगोली, कंदील और दीए- इनसे बनता है दिवाली वाला घर। अमावस्या की रात को राम और सीता के स्वागत के लिए पूरा शहर रोशनी से खिल उठता है। अंधेरे से उजाले की ओर बढ़ना- यह एक संदेश है हम सब के लिए। अज्ञान से ज्ञान की तरफ, स्वार्थ से परमार्थ की तरफ। पिघलें वो दिल, जो हो गए हैं बरफ।

    अपने परिवार के आगे, समाज के लिए कुछ कीजिए। अपने धन का एक छोटा हिस्सा तो दीजिए। शुरू करें अपने पास काम करने वालों के साथ। उनके बच्चों को दीजिए आगे बढ़ने में हाथ। आपकी दिवाली में मिठास हो, सारे कष्ट खलास हों। यही मेरी ग्रीटिंग है, डाइट करना चीटिंग है। खाओ और खिलाओ, खुशियां फैलाओ। और मन हो तो दो-चार पटाखे भी बजाओ। फूल, सामग्री, चोपड़ा लाओ। पधारो लक्ष्मी पधारो, म्हारे घर आवो। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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  • नीरज कौशल का कॉलम:अहिंसक विरोध से सफलता की गुंजाइश आज भी अधिक

    नीरज कौशल का कॉलम:अहिंसक विरोध से सफलता की गुंजाइश आज भी अधिक

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    • Neeraj Kaushal’s Column: Non violent Protests Hold Even Greater Potential For Success

    नीरज कौशल का कॉलम:अहिंसक विरोध से सफलता की गुंजाइश आज भी अधिक

    5 घंटे पहले
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    नीरज कौशल, कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर - Dainik Bhaskar
    नीरज कौशल, कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर

    दुनिया इजराइल-गाजा युद्धविराम को भी भय और संशय के साथ देख रही है। क्या यह टिक पाएगा? कितने समय तक? मैं अकसर सोचती हूं कि अगर दोनों पक्ष गांधीवादी अहिंसा और सविनय अवज्ञा का रास्ता चुनते तो परिणाम क्या होता? इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष एक सदी से भी पुराना है। इसमें लाखों लोग मारे गए और विस्थापित हुए हैं। लेकिन यदि इनमें से कोई एक पक्ष अहिंसा का रास्ता चुनता तो क्या परिणाम बदतर होता?

    यही सवाल दुनिया भर में चल रहे प्रमुख सशस्त्र संघर्षों और स्थानीय स्तर के विद्रोहों को लेकर किया जा सकता है। इनमें यूक्रेन, सूडान, म्यांमार, यमन, सीरिया और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो के युद्ध शामिल हैं। इनमें से कई युद्ध तो वर्षों से चल रहे हैं, जिनमें लाखों लोग मारे जा चुके हैं। इन लंबे टकरावों में भी अगर सशस्त्र संघर्ष के बजाय अहिंसक विरोध रहता, तो क्या कम कीमत कम चुकानी पड़ती?

    शायद ऐसे सवालों को इन संघर्षों में शामिल संगठन या लोग बहुत सरलीकृत मानकर खारिज कर देंगे। वे कहेंगे कि हर युद्ध का एक जटिल ऐतिहासिक संदर्भ होता है, जिनके कारण हालात यहां तक पहुंचे। लेकिन वर्ष 1900 से लेकर अब तक के प्रदर्शनों के आंकड़े बताते हैं कि किसी हिंसक संघर्ष की तुलना में शांतिपूर्ण सविनय अवज्ञा के गांधीवादी रास्ते से सफलता की संभावना दोगुनी अधिक होती है!

    द नॉन-वायलेंट एंड वायलेंट कैंपेन्स एंड आउटकम्स (एनएवीसीओ) डेटासेट ने 1900 से 2021 के बीच दुनिया भर के प्रमुख टकरावों की जानकारी एकत्र की है। 1900 से 2006 तक के डेटा के विश्लेषण में राजनीतिक वैज्ञानिक एरिका शेनोवेथ और मारिया स्टीफन ने पाया कि अहिंसक अभियानों की सफलता दर 53% रही है, जबकि हिंसक अभियानों की केवल 26% थी। एनएवीसीओ डेटा बताता है कि अहिंसक प्रतिरोध किसी तानाशाही के अंत के बाद स्थिर, शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक शासन की सम्भावना को बढ़ाता है। जबकि हिंसक विद्रोह में तानाशाही के नए रूपों के विकसित होने और जनता के दमन की आशंका ज्यादा रहती है।

    आलोचक कह सकते हैं कि इन आंकड़ों से कुछ भी साबित नहीं होता। क्योंकि प्रदर्शनकारी वही रास्ता चुनते हैं, जो उन्हें सबसे प्रभावी लगता है। अगर उन्हें लगता है कि अहिंसक तरीके अधिक प्रभावी होंगे, तो वे अहिंसक तरीके अपनाएंगे। और अगर उन्हें लगता है कि अब हिंसा ही एकमात्र रास्ता है, तो वे हिंसक तरीके चुनेंगे।

    आलोचक यह भी कह सकते हैं कि अहिंसक विरोध केवल लोकतांत्रिक शासन में ही काम कर सकता है। क्योंकि ताकतवर तानाशाही सत्ता तो अहिंसक आंदोलनों को हिंसा से कुचल देगी। यकीनन, हालिया वर्षों में ऐसे मामले सामने आए भी हैं, जिनमें तानाशाही के खिलाफ अहिंसक विरोध को क्रूरता से दबा दिया गया और इनमें हजारों लोग मारे गए।

    फिर भी, एनएवीसीओ डेटा हमें एक अलग नजरिया देता है। पारम्परिक धारणा के विपरीत दोनों राजनीतिक वैज्ञानिकों के निष्कर्ष बताते हैं कि अहिंसक आंदोलन हर प्रकार की परिस्थितियों में कारगर हो सकते हैं। सारांश में वे कहते हैं कि ‘हिंसक आंदोलन चाहे कम समय के हों या लंबे, वे हमेशा भयानक विनाश और रक्तपात को ही जन्म देते हैं।

    आम तौर पर इनमें निर्धारित लक्ष्य भी नहीं मिल पाता।’ सशस्त्र संघर्ष लंबा चले तो यह प्रदर्शनकारियों को बाहरी समर्थन पर निर्भर कर देता है। इसलिए अहिंसक आंदोलन केवल अपनी नैतिक मजबूती के कारण ही सफल नहीं होते। इन आंदोलनों में समय के साथ बड़ी संख्या में लोग भी जुड़ते जाते हैं।

    अच्छी बात यह है कि आज जहां आमतौर पर मीडिया हिंसक विरोध-प्रदर्शनों को कवर करने में ज्यादा समय और संसाधन खपाता है, वहीं अहिंसक आंदोलन बढ़ रहे हैं। अफ्रीका में इनकी वृद्धि तो सबसे तेज है। आंकड़े बताते हैं कि तानाशाही शासनों को उखाड़ फेंकने में अहिंसक क्रांतियों की सफलता दर कुछ हद तक अधिक भी है। ऐसे में देशों-महाद्वीपों की सीमाओं से परे अहिंसक विरोध में सफलता की गुंजाइश अधिक है।

    बहुपक्षीय संगठनों और देशों के लिए इन निष्कर्षों के स्पष्ट नीतिगत निहितार्थ हैं कि हिंसक संघर्षों में लगे संगठनों का वित्त-पोषण बंद करें और वेलवेट रिवोल्यूशन यानी अहिंसक क्रांतियों को अधिक फलने-फूलने दें!

    वर्ष 1900 से लेकर अब तक के प्रदर्शनों के आंकड़े बताते हैं कि किसी हिंसक संघर्ष की तुलना में शांतिपूर्ण सविनय अवज्ञा के गांधीवादी रास्ते से सफलता की संभावना दोगुनी होती है। संगठनों और देशों के लिए इनके स्पष्ट निहितार्थ हैं कि हिंसा का वित्त-पोषण बंद करें।

    (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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  • नवनीत गुर्जर का कॉलम:बिहार में चुनावी बहार! है भी, नहीं भी!

    नवनीत गुर्जर का कॉलम:बिहार में चुनावी बहार! है भी, नहीं भी!

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    • Navneet Gurjar’s Column: Bihar Is In The Electoral Frenzy, And It’s Not!

    नवनीत गुर्जर का कॉलम:बिहार में चुनावी बहार! है भी, नहीं भी!

    5 घंटे पहले
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    नवनीत गुर्जर - Dainik Bhaskar
    नवनीत गुर्जर

    बरसात, शीत और गर्मी, मुख्य रूप से हिंदुस्तान में तीन मौसम होते हैं, लेकिन वर्षों से यहां एक ही मौसम प्रभावी दिखाई दे रहा है- चुनावी मौसम! एक चुनाव गया, दूसरा आया। दूसरा गया, तीसरा आया।

    हम थक चुके हैं इस चुनावी मौसम से जिसमें कोई हमें ही बरगलाए और हमें ही लूटकर सत्ता का सरताज बनजाए। फिर हमें पांच साल दिखे न दिखे! न हमें कोई फर्क पड़ता और न उन्हें, क्योंकि वे तो अपनी चमड़ी को इतनी मोटी कर चुके हैं कि कोई कुछ भी कहे, कितनी भी सुई चुभोए, कोई चुभन महसूस ही नहीं होती।

    फर्क से याद आया- दल कोई भी हो, किसी में कोई फर्क नहीं! सब एक जैसे हैं! अंधे, बहरे और निखट्टू। न उन्हें कुछ देखना है, न उन्हें कुछ सुनना है… और करना तो कुछ है ही नहीं। चूंकि फिलहाल बिहार में चुनाव हैं, इसलिए यहां भी यही सब चल रहा है। कहने को बिहार में बहार है! लेकिन बहार है भी। नहीं भी।

    बहार है इसलिए कि टिकटों की बहार में सब कुछ हरा ही हरा दिखाई दे रहा है। इन्हीं टिकटों की उदासीनता में जिनके खेत-खलिहान की हरियाली सूख चुकी है, वे दूसरे दलों में जा-जाकर टिकट की जुगत लगा रहे हैं। बहार नहीं है, इसलिए कि तमाम दलीय निष्ठाएं, राजनीतिक शुचिता और ईमानदारी बड़ी शान से गंगा मैया में बेखौफ बहाई जा रही है।

    वैसे भी राजनीति के अपराधीकरण की बात करें तो इस मामले में बिहार का कोई मुकाबला नहीं। मीडिया में बड़ी खबरें बनती हैं- इतने टिकटों में से इतनी अपराधियों को, या आरोपियों को। बिहार में इस तरह की सनसनी की कोई जरूरत ही नहीं। यहां तो मीडिया को यह खबर छापनी चाहिए कि इतने ऐसे लोग भी चुनाव लड़ रहे हैं, जिन पर कोई आरोप नहीं है या जिन पर कोई आपराधिक प्रकरण दर्ज नहीं हैं।

    दरअसल, बिहार की सबसे बड़ी सहूलियत हैं गंगा मैया। यहां सबके पाप धुल जाते हैं। इन नेताओं के भी धुल जाते हैं। आगे भी यह प्रक्रिया जारी रहेगी, क्योंकि गंगा मैया तो अपार है। उसकी महिमा भी अपरम्पार है। लेकिन सवाल यह है कि आम आदमी, आम वोटर, गंगाजल उठाकर कब कसम खाएगा कि वो सच्चे व्यक्ति को ही वोट देगा। ईमानदार व्यक्ति को ही अपना प्रतिनिधि चुनेगा। गलत हाथों में सत्ता नहीं जाने देगा।

    …और यह बात केवल बिहार के लिए या केवल उनके लिए नहीं है, जो गंगा किनारे रहते हैं। बल्कि देशभर के उन लोगों के लिए भी है, जो किसी न किसी रूप में अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए, अपनी सत्ता या सरकार चुनने के लिए वोट करते या डालते हैं।

    क्योंकि सबकी शुद्धि का ठेका अकेली गंगा मैया ने ही तो लिया नहीं है! बाकी देश में, बाकी प्रदेशों में भी कोई न कोई जीवन दायिनी नदी तो बहती ही है! कहीं मां नर्मदा है, कहीं सतलुज, रावी और यमुना भी है। वही यमुना जो भगवान श्रीकृष्ण के बचपन की साक्षी है। वही यमुना जिसने बाल-गोपाल को निर्मल जल भी पिलाया और अपनी गोद में भी खिलाया।

    अगर हम मतदाता इन जीवनदायिनी माताओं से भी कोई सीख नहीं लेना चाहते तो माफ कीजिए हमारा कल्याण कभी कोई नहीं कर सकता। कम से कम ये आपराधिक प्रवृत्ति वाले सांसद- विधायक तो नहीं ही कर सकते।

    आजादी मिले इतने बरस हो चुके, लेकिन वोट देने की जो समझदारी हममें आनी थी, या आनी चाहिए, वो अब तक नहीं आ सकी। दरअसल, अपने कीमती या कहें अमूल्य वोट को किसी बहकावे में आकर पानी की तरह बहाने और पांच साल तक फिर अपने ही वोट की खातिर आंसू बहाने, पछताने का हमें शाप मिला है।

    इसी शाप को ढो रहे हैं। जाने कितने वर्षों से। जाने कितने वर्षों तक। कोई उंगली उठाकर कहना नहीं चाहता कि हम अब उन्हीं दलों, उन्हीं नेताओं या प्रत्याशियों को ही वोट देंगे, जो ईमानदार हो, जो जनता की भलाई चाहें या जो राजनीतिक शुचिता के पैमाने पर खरे उतरते हों।

    चार गाड़ियां लेकर, दस भोंपू बजाकर वे नेता पांच साल में एक बार हमारे गांव, शहर या मोहल्ले में आते हैं और हम उनके लिए पलक-पांवड़े बिछाकर खड़े हो जाते हैं! क्यों? क्यों हम उनसे तीखे सवाल नहीं करते?

    क्यों हमारी नागरिक जिम्मेदारी तब उनके आगे भीगी बिल्ली बनकर रह जाती है? आखिर कोई एक कारण तो हो! कोई एक वजह तो हो? सही है, राजनीतिक चकाचौंध की रौशनी इतनी तेज होती है कि आम आदमी को उसके आगे कुछ सूझता नहीं है।

    लेकिन अपनी आंख का तेज भी तो कोई चीज है, जिसमें सही और गलत को अच्छी तरह परखने की शक्ति होती है।

    उसका इस्तेमाल आखिर हम कब करेंगे? अब तक क्यों नहीं किया?

    कम से कम अब तो करो अपनी शक्ति का इस्तेमाल!

    अपने अमूल्य वोट को गंवा देने का शाप हमें मिला है अपने अमूल्य वोट को किसी बहकावे में आकर पानी की तरह बहाने और पांच साल तक फिर अपने ही वोट की खातिर आंसू बहाने, पछताने का हमें शाप मिला है। इसी शाप को ढो रहे हैं। जाने कितने वर्षों से। जाने कितने वर्षों तक।

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  • पं. विजयशंकर मेहता:स्त्री और पुरुष को न्यू नार्मल  के प्रति सहज होना पड़ेगा

    पं. विजयशंकर मेहता:स्त्री और पुरुष को न्यू नार्मल  के प्रति सहज होना पड़ेगा

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    • Pt. Vijayshankar Mehta – Men And Women Will Have To Adapt To The New Normal

    पं. विजयशंकर मेहता:स्त्री और पुरुष को न्यू नार्मल  के प्रति सहज होना पड़ेगा

    5 घंटे पहले
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    पं. विजयशंकर मेहता - Dainik Bhaskar
    पं. विजयशंकर मेहता

    पति-पत्नी के सम्बंधों की न तो कोई स्थायी व्याख्या हो सकती है, और न ही तयशुदा परिभाषा। दाम्पत्य निजी अनुभव है। जितने जोड़े, उतने सिद्धांत। जितने पति-पत्नी, उतने ही अलग-अलग ​किस्से। प्रबंधन की दुनिया में एक शब्द चलता है- न्यू नॉर्मल। इसका सीधा मतलब किसी आपात और अप्रिय स्थिति के बाद की सामान्य दशा है।

    अब इस रिश्ते में भी स्त्री और पुरुष को भी न्यू नार्मल के प्रति सहज और स्वीकृत होना पड़ेगा। रात को हुआ फसाद सुबह प्रेम-वार्तालाप में बदल सकता है। और सुबह का प्रेम शाम होते-होते उपद्रव में तब्दील हो जाएगा। इस​लिए न्यू नॉर्मल की उम्मीद बनाए रखें। प्रबंधन के लोग कहते हैं कि जब ओपन डिस्कशन हो तो हाई ईक्यू यानी इमोशनल कोशेंट बनाए रखना चाहिए।

    यह बात पति-पत्नी को भी समझनी होगी। पहले के जोड़ों में निर्णय किसी एक के हाथ होता था, और खासतौर पर पुरुष के।​ पर अब दोनों डिसीजन-मेकिंग की स्थिति में हैं, क्योंकि अब इस रिश्ते की डोर बहुत महीन हो गई है और जरा से दबाव में भी टूट सकती है।

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  • थॉमस एल. फ्रीडमैन का कॉलम:जब तक हमास के हाथ में  हथियार है, शांति नहीं होगी

    थॉमस एल. फ्रीडमैन का कॉलम:जब तक हमास के हाथ में  हथियार है, शांति नहीं होगी

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    • Thomas L. Friedman’s Column There Will Be No Peace As Long As Hamas Has Weapons In Its Hands

    थॉमस एल. फ्रीडमैन का कॉलम:जब तक हमास के हाथ में  हथियार है, शांति नहीं होगी

    5 घंटे पहले
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    थॉमस एल. फ्रीडमैन, तीन बार पुलित्ज़र अवॉर्ड विजेता एवं ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में स्तंभकार - Dainik Bhaskar
    थॉमस एल. फ्रीडमैन, तीन बार पुलित्ज़र अवॉर्ड विजेता एवं ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में स्तंभकार

    धौंस जमाते हुए, शेखी बघारते हुए, अपनी बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहने की ट्रम्प की क्षमता वाकई देखने लायक है। पहले इजराइली संसद और फिर मिस्र में आयोजित एक सभा में दुनिया के 20 से ज्यादा नेताओं को दिए उनके भाषणों में यह पूरी तरह से जाहिर हुआ। लेकिन मैं ट्रम्प को एक सलाह देना चाहूंगा।

    वे ऐसी किसी भी घोषणा करने का जोखिम उठाने से बचें, जो कहती हो कि हम मध्य-पूर्व में शांति की राह पर हैं और इस शां​ति को ट्रम्प की अध्यक्षता वाला पीस-बोर्ड लागू करेगा। इस समझौते को पूरा करने के लिए ट्रम्प को तेजी से आगे बढ़ना होगा और कई चीजें बदलनी होंगी। अभी तक तो मुझे अगले चरण की कोई शुरुआत नजर नहीं आ रही है।

    मुझे ऐसा कोई संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव नहीं दिखाई दे रहा है, जो गाजा में हमास के निरस्त्रीकरण और सुरक्षा की निगरानी के लिए अरब/अंतरराष्ट्रीय शांति सेना की स्थापना करे, जब तक कि वहां किसी फिलिस्तीनी सुरक्षा बल का गठन नहीं हो जाता। गाजा के पुनर्वास के लिए जिन अरबों डॉलर की जरूरत है, वह धनराशि भी मुझे नहीं दिख रही है। और मुझे नहीं पता कि फिलिस्तीनी टेक्नोक्रेट्स के उस मंत्रिमंडल की नियुक्ति और प्रबंधन कौन करेगा, जो गाजा को चलाएगा?

    ट्रम्प प्रशासन के पास नियर-ईस्ट मामलों के लिए एक स्थायी सहायक विदेश मंत्री तक नहीं है। विदेश मंत्री मार्को रुबियो पहले ही अपना काम कर रहे हैं और साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की भी भूमिका निभा रहे हैं। शांति समझौते को आगे बढ़ाने वाले स्टीव विटकॉफ और जेरेड कुशनर के पास अपने-अपने काम हैं।

    जिस चीज ने ट्रम्प को बंधकों की रिहाई, कैदियों की अदला-बदली और युद्धविराम जैसी शानदार सफलताएं दिलाई है, वह मिडिल ईस्ट में तब तक व्यापक शांति नहीं दिला पाएगी, जब तक कि वे बेंजामिन नेतन्याहू और हमास के पर्यवेक्षकों- तुर्किए, मिस्र और कतर के साथ मिलकर कानून नहीं बनाते। पहला चरण बहुत कठिन था, लेकिन आगे आने वाली कठिनाइयों का अभी ट्रम्प को अंदाजा नहीं है।

    ट्रम्प को नेतन्याहू से कहना होगा कि मुझे आपको यहां तक लाने के लिए बहुत जोर लगाना पड़ा। लेकिन अभी मुझे यह जानना है कि अगले चरण में आप मेरे साथ हैं या मेरे खिलाफ? क्या आप इजराइली राजनीति के केंद्र में आकर एक ऐसा गठबंधन बनाने जा रहे हैं, जो एक नए फिलिस्तीनी प्राधिकरण के साथ मिलकर हमास की जगह ले सके और गाजा और वेस्ट बैंक, दोनों पर शासन कर सके? या आप वही खेल जारी रखेंगे, जो आपने 1996 से अमेरिकी राष्ट्रपतियों के साथ खेला है? क्या आप अब भी गाजा में हमास को चुपचाप जिंदा रखने और वेस्ट बैंक में फिलिस्तीनी प्राधिकरण को कमजोर करने की कोशिश करते रहेंगे?

    और कतर, तुर्किए, मिस्र या जो भी अरब देश गाजा में सेनाएं भेजने को तैयार हैं, उनसे ट्रम्प को कुछ ऐसा ही कहना चाहिए : क्या आप हमास को हथियार डालने के लिए मजबूर करेंगे और गाजा में फिलिस्तीनी प्राधिकरण के नेतृत्व की वापसी का रास्ता साफ करेंगे? या आप हमास के साथ चालाकी से पेश आएंगे, जब वो वहां फिर से नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश कर रहा होगा?

    हालांकि हमास ने संकेत दिया है कि वह गाजा का नागरिक शासन किसी अन्य फिलिस्तीनी इकाई को सौंपने को तैयार है, लेकिन समूह ने कभी भी सार्वजनिक रूप से यह पुष्टि नहीं की कि वह हथियार डाल देगा। ट्रम्प ने कहा कि हमास ने उनसे कहा कि वे निरस्त्रीकरण करेंगे, और अगर वे निरस्त्रीकरण नहीं करते हैं, तो हम उन्हें निरस्त्र कर देंगे। लेकिन अगर हमास ह​थियार नहीं डालता है तो इससे नेतन्याहू को युद्ध फिर से शुरू करने का बहाना मिल जाएगा।

    लब्बोलुआब यह है कि अगर ट्रम्प अपनी 20-सूत्रीय योजना को स्थायी क्षेत्रीय शांति में बदलना चाहते हैं, तो उन्हें नेतन्याहू और हमास के बीच के विकृत संबंध को हमेशा के लिए तोड़ना होगा। ये वो संबंध है, जिसने बीते दो दशकों से हमास और नेतन्याहू दोनों को ही राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बनाए रखने में मदद की है। यह अकारण नहीं है कि नेतन्याहू ने हमास को करोड़ों डॉलर पहुंचाने में कतर की मदद की थी और फिलिस्तीनी प्राधिकरण को कमजोर करने के लिए हरसंभव कोशिश की थी।

    हमास ने संकेत दिया है कि वह गाजा का शासन किसी फिलिस्तीनी इकाई को सौंपने को तैयार है, लेकिन उसने सार्वजनिक रूप से यह नहीं कहा कि वह हथियार डाल देगा। अगर ऐसा नहीं होता है तो इससे नेतन्याहू को युद्ध फिर से शुरू करने का बहाना मिल जाएगा। (द न्यूयॉर्क टाइम्स से)

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