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    रश्मि बंसल का कॉलम:अपने प​रिवार के अलावा इस समाज के लिए भी कुछ कीजिए

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    रश्मि बंसल का कॉलम:अपने प​रिवार के अलावा इस समाज के लिए भी कुछ कीजिए

    5 घंटे पहले
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    रश्मि बंसल, लेखिका और स्पीकर - Dainik Bhaskar
    रश्मि बंसल, लेखिका और स्पीकर

    दीवाली की सफाई हर घर में होती है। मम्मियां रोती हैं- एक साल में ये कितना कूड़ा-करकट जमा हो गया। अब उठो, फोन छोड़ो, अपने हिस्से का काम करो। खोलो अलमारियां और देखो, सामान पुकार रहा है। हमें इस्तेमाल करो, या फिर हमें मुक्ति दो।

    वो बैंगनी रंग की ड्रेस, जो आपने सेल में खरीद तो ली पर पहनी नहीं। जिसकी कमर टाइट है, हां वही। विदा कीजिए उसे प्यार से, किसी और की अमानत है। जो दे ना पाओ तो लानत है। वो पजामा जिसमें चार छेद हो गए हैं, उसको घसीटना बंद करें। पोंछे की सख्त जरूरत है, काट लो, अच्छा मुहूर्त है।

    चलते हैं स्टडी रूम में, जहां एक जमाने में दो-चार ड्रॉअर कागज से भर जाती थीं। चिट्ठी-पत्री, रसीदें, इत्यादि, इत्यादि। अब वही हाल ईमेल के इनबॉक्स का हो गया है। तो एक-आध दिन इस जंक को हटाने में लगाएं। 4102 अनरीड मेल्स डिलीट करने से आपको काफी सुकून मिलेगा।

    अब आते हैं असली धूल-मिट्टी पे, जो जाने कैसे कोने-कोने में फंसी हुई मिलती है। इस टेबल के पीछे, उस बेड के नीचे। ऊपर देखो तो मकड़ी का जाल, और सोफे के अंदर डॉगी के बाल। पंखे की तो बात ही न पूछें। उसका तो बेचारा बुरा है हाल। सोचने की बात ये है कि पंखा अपनी जगह पर, अपनी रफ्तार से अपनी ड्यूटी निभा रहा है। लेकिन फिर भी उस पर धूल बैठ जाती है, और वो काला दिखने लगता है।

    इसी तरह हम अपनी जिंदगी में अपनी रफ्तार से चल रहे हैं, अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं। लेकिन आस-पास के वातावरण से हम भी प्रभावित हो जाते हैं। बाहर की धूल-मिट्टी तो हम नहाकर साफ कर लेते हैं, मगर जो कचरा मन में इकट्ठा हो जाता है, उसका क्या? सोशल मीडिया की बेकार की बातें, दूसरों के विचार, उनके संस्कार, न चाहते हुए भी हमारी सोच पर कालिख जम जाती है। इसे भी तो साफ करना होगा।

    कालिख की बात करें तो काले धन का जिक्र तो करना पड़ेगा। नोटबंदी के बाद कुछ दिनों तक थोड़ा संयम रहा, अब फिर वही प्रथा जोर-शोर से चल रही है। शायद इस वजह से कि हर कोई कर रहा है, तो मैं क्यों नहीं। लेकिन जरा सोचिए, क्या आप लक्ष्मी जी को सही मान-सम्मान दे रहे हैं?

    मेहनत से कमाए धन और चोरी के धन में फर्क होता है। बड़े-बड़े करोड़पति जब मंदिर में पैसे चढ़ाते हैं तो क्या वो श्रद्धाभाव माना जाएगा? या फिर अपनी चोरी के पैसों से भगवान को कमीशन? सोने के पलंग पर ऐसे इंसान को वो चैन की नींद नहीं आएगी, जो एक ईमानदार नागरिक को आती है।

    खैर, ऐसा नहीं कि सफाई का हर काम बोझिल है। कभी सामान छांटते हुए कुछ ऐसी चीज मिल जाती है, जिससे मन खुशी से झूम उठता है। आपके सोने के झुमके का पेंच, जो किसी कोने में लुढ़क के लुप्त हो गया था। या फिर बचपन में लिखी हुई एक डायरी जिसे पढ़कर पुरानी यादें ताजा हो गईं। ऐसे अनमोल रतन जब मिलें, इन्हें सम्भाल के रखिए। कागज फट जाता है, फोटो का रंग उड़ जाता है, इसलिए स्कैन करके सुरक्षित कीजिए। ताकि ये सुनहरी यादें कहीं खो ना जाएं।

    सफाई के बाद आता है समय सजावट का। फूलमाला, रंगोली, कंदील और दीए- इनसे बनता है दिवाली वाला घर। अमावस्या की रात को राम और सीता के स्वागत के लिए पूरा शहर रोशनी से खिल उठता है। अंधेरे से उजाले की ओर बढ़ना- यह एक संदेश है हम सब के लिए। अज्ञान से ज्ञान की तरफ, स्वार्थ से परमार्थ की तरफ। पिघलें वो दिल, जो हो गए हैं बरफ।

    अपने परिवार के आगे, समाज के लिए कुछ कीजिए। अपने धन का एक छोटा हिस्सा तो दीजिए। शुरू करें अपने पास काम करने वालों के साथ। उनके बच्चों को दीजिए आगे बढ़ने में हाथ। आपकी दिवाली में मिठास हो, सारे कष्ट खलास हों। यही मेरी ग्रीटिंग है, डाइट करना चीटिंग है। खाओ और खिलाओ, खुशियां फैलाओ। और मन हो तो दो-चार पटाखे भी बजाओ। फूल, सामग्री, चोपड़ा लाओ। पधारो लक्ष्मी पधारो, म्हारे घर आवो। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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  • नीरज कौशल का कॉलम:अहिंसक विरोध से सफलता की गुंजाइश आज भी अधिक

    नीरज कौशल का कॉलम:अहिंसक विरोध से सफलता की गुंजाइश आज भी अधिक

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    नीरज कौशल का कॉलम:अहिंसक विरोध से सफलता की गुंजाइश आज भी अधिक

    5 घंटे पहले
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    नीरज कौशल, कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर - Dainik Bhaskar
    नीरज कौशल, कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर

    दुनिया इजराइल-गाजा युद्धविराम को भी भय और संशय के साथ देख रही है। क्या यह टिक पाएगा? कितने समय तक? मैं अकसर सोचती हूं कि अगर दोनों पक्ष गांधीवादी अहिंसा और सविनय अवज्ञा का रास्ता चुनते तो परिणाम क्या होता? इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष एक सदी से भी पुराना है। इसमें लाखों लोग मारे गए और विस्थापित हुए हैं। लेकिन यदि इनमें से कोई एक पक्ष अहिंसा का रास्ता चुनता तो क्या परिणाम बदतर होता?

    यही सवाल दुनिया भर में चल रहे प्रमुख सशस्त्र संघर्षों और स्थानीय स्तर के विद्रोहों को लेकर किया जा सकता है। इनमें यूक्रेन, सूडान, म्यांमार, यमन, सीरिया और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो के युद्ध शामिल हैं। इनमें से कई युद्ध तो वर्षों से चल रहे हैं, जिनमें लाखों लोग मारे जा चुके हैं। इन लंबे टकरावों में भी अगर सशस्त्र संघर्ष के बजाय अहिंसक विरोध रहता, तो क्या कम कीमत कम चुकानी पड़ती?

    शायद ऐसे सवालों को इन संघर्षों में शामिल संगठन या लोग बहुत सरलीकृत मानकर खारिज कर देंगे। वे कहेंगे कि हर युद्ध का एक जटिल ऐतिहासिक संदर्भ होता है, जिनके कारण हालात यहां तक पहुंचे। लेकिन वर्ष 1900 से लेकर अब तक के प्रदर्शनों के आंकड़े बताते हैं कि किसी हिंसक संघर्ष की तुलना में शांतिपूर्ण सविनय अवज्ञा के गांधीवादी रास्ते से सफलता की संभावना दोगुनी अधिक होती है!

    द नॉन-वायलेंट एंड वायलेंट कैंपेन्स एंड आउटकम्स (एनएवीसीओ) डेटासेट ने 1900 से 2021 के बीच दुनिया भर के प्रमुख टकरावों की जानकारी एकत्र की है। 1900 से 2006 तक के डेटा के विश्लेषण में राजनीतिक वैज्ञानिक एरिका शेनोवेथ और मारिया स्टीफन ने पाया कि अहिंसक अभियानों की सफलता दर 53% रही है, जबकि हिंसक अभियानों की केवल 26% थी। एनएवीसीओ डेटा बताता है कि अहिंसक प्रतिरोध किसी तानाशाही के अंत के बाद स्थिर, शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक शासन की सम्भावना को बढ़ाता है। जबकि हिंसक विद्रोह में तानाशाही के नए रूपों के विकसित होने और जनता के दमन की आशंका ज्यादा रहती है।

    आलोचक कह सकते हैं कि इन आंकड़ों से कुछ भी साबित नहीं होता। क्योंकि प्रदर्शनकारी वही रास्ता चुनते हैं, जो उन्हें सबसे प्रभावी लगता है। अगर उन्हें लगता है कि अहिंसक तरीके अधिक प्रभावी होंगे, तो वे अहिंसक तरीके अपनाएंगे। और अगर उन्हें लगता है कि अब हिंसा ही एकमात्र रास्ता है, तो वे हिंसक तरीके चुनेंगे।

    आलोचक यह भी कह सकते हैं कि अहिंसक विरोध केवल लोकतांत्रिक शासन में ही काम कर सकता है। क्योंकि ताकतवर तानाशाही सत्ता तो अहिंसक आंदोलनों को हिंसा से कुचल देगी। यकीनन, हालिया वर्षों में ऐसे मामले सामने आए भी हैं, जिनमें तानाशाही के खिलाफ अहिंसक विरोध को क्रूरता से दबा दिया गया और इनमें हजारों लोग मारे गए।

    फिर भी, एनएवीसीओ डेटा हमें एक अलग नजरिया देता है। पारम्परिक धारणा के विपरीत दोनों राजनीतिक वैज्ञानिकों के निष्कर्ष बताते हैं कि अहिंसक आंदोलन हर प्रकार की परिस्थितियों में कारगर हो सकते हैं। सारांश में वे कहते हैं कि ‘हिंसक आंदोलन चाहे कम समय के हों या लंबे, वे हमेशा भयानक विनाश और रक्तपात को ही जन्म देते हैं।

    आम तौर पर इनमें निर्धारित लक्ष्य भी नहीं मिल पाता।’ सशस्त्र संघर्ष लंबा चले तो यह प्रदर्शनकारियों को बाहरी समर्थन पर निर्भर कर देता है। इसलिए अहिंसक आंदोलन केवल अपनी नैतिक मजबूती के कारण ही सफल नहीं होते। इन आंदोलनों में समय के साथ बड़ी संख्या में लोग भी जुड़ते जाते हैं।

    अच्छी बात यह है कि आज जहां आमतौर पर मीडिया हिंसक विरोध-प्रदर्शनों को कवर करने में ज्यादा समय और संसाधन खपाता है, वहीं अहिंसक आंदोलन बढ़ रहे हैं। अफ्रीका में इनकी वृद्धि तो सबसे तेज है। आंकड़े बताते हैं कि तानाशाही शासनों को उखाड़ फेंकने में अहिंसक क्रांतियों की सफलता दर कुछ हद तक अधिक भी है। ऐसे में देशों-महाद्वीपों की सीमाओं से परे अहिंसक विरोध में सफलता की गुंजाइश अधिक है।

    बहुपक्षीय संगठनों और देशों के लिए इन निष्कर्षों के स्पष्ट नीतिगत निहितार्थ हैं कि हिंसक संघर्षों में लगे संगठनों का वित्त-पोषण बंद करें और वेलवेट रिवोल्यूशन यानी अहिंसक क्रांतियों को अधिक फलने-फूलने दें!

    वर्ष 1900 से लेकर अब तक के प्रदर्शनों के आंकड़े बताते हैं कि किसी हिंसक संघर्ष की तुलना में शांतिपूर्ण सविनय अवज्ञा के गांधीवादी रास्ते से सफलता की संभावना दोगुनी होती है। संगठनों और देशों के लिए इनके स्पष्ट निहितार्थ हैं कि हिंसा का वित्त-पोषण बंद करें।

    (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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  • नवनीत गुर्जर का कॉलम:बिहार में चुनावी बहार! है भी, नहीं भी!

    नवनीत गुर्जर का कॉलम:बिहार में चुनावी बहार! है भी, नहीं भी!

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    नवनीत गुर्जर का कॉलम:बिहार में चुनावी बहार! है भी, नहीं भी!

    5 घंटे पहले
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    नवनीत गुर्जर - Dainik Bhaskar
    नवनीत गुर्जर

    बरसात, शीत और गर्मी, मुख्य रूप से हिंदुस्तान में तीन मौसम होते हैं, लेकिन वर्षों से यहां एक ही मौसम प्रभावी दिखाई दे रहा है- चुनावी मौसम! एक चुनाव गया, दूसरा आया। दूसरा गया, तीसरा आया।

    हम थक चुके हैं इस चुनावी मौसम से जिसमें कोई हमें ही बरगलाए और हमें ही लूटकर सत्ता का सरताज बनजाए। फिर हमें पांच साल दिखे न दिखे! न हमें कोई फर्क पड़ता और न उन्हें, क्योंकि वे तो अपनी चमड़ी को इतनी मोटी कर चुके हैं कि कोई कुछ भी कहे, कितनी भी सुई चुभोए, कोई चुभन महसूस ही नहीं होती।

    फर्क से याद आया- दल कोई भी हो, किसी में कोई फर्क नहीं! सब एक जैसे हैं! अंधे, बहरे और निखट्टू। न उन्हें कुछ देखना है, न उन्हें कुछ सुनना है… और करना तो कुछ है ही नहीं। चूंकि फिलहाल बिहार में चुनाव हैं, इसलिए यहां भी यही सब चल रहा है। कहने को बिहार में बहार है! लेकिन बहार है भी। नहीं भी।

    बहार है इसलिए कि टिकटों की बहार में सब कुछ हरा ही हरा दिखाई दे रहा है। इन्हीं टिकटों की उदासीनता में जिनके खेत-खलिहान की हरियाली सूख चुकी है, वे दूसरे दलों में जा-जाकर टिकट की जुगत लगा रहे हैं। बहार नहीं है, इसलिए कि तमाम दलीय निष्ठाएं, राजनीतिक शुचिता और ईमानदारी बड़ी शान से गंगा मैया में बेखौफ बहाई जा रही है।

    वैसे भी राजनीति के अपराधीकरण की बात करें तो इस मामले में बिहार का कोई मुकाबला नहीं। मीडिया में बड़ी खबरें बनती हैं- इतने टिकटों में से इतनी अपराधियों को, या आरोपियों को। बिहार में इस तरह की सनसनी की कोई जरूरत ही नहीं। यहां तो मीडिया को यह खबर छापनी चाहिए कि इतने ऐसे लोग भी चुनाव लड़ रहे हैं, जिन पर कोई आरोप नहीं है या जिन पर कोई आपराधिक प्रकरण दर्ज नहीं हैं।

    दरअसल, बिहार की सबसे बड़ी सहूलियत हैं गंगा मैया। यहां सबके पाप धुल जाते हैं। इन नेताओं के भी धुल जाते हैं। आगे भी यह प्रक्रिया जारी रहेगी, क्योंकि गंगा मैया तो अपार है। उसकी महिमा भी अपरम्पार है। लेकिन सवाल यह है कि आम आदमी, आम वोटर, गंगाजल उठाकर कब कसम खाएगा कि वो सच्चे व्यक्ति को ही वोट देगा। ईमानदार व्यक्ति को ही अपना प्रतिनिधि चुनेगा। गलत हाथों में सत्ता नहीं जाने देगा।

    …और यह बात केवल बिहार के लिए या केवल उनके लिए नहीं है, जो गंगा किनारे रहते हैं। बल्कि देशभर के उन लोगों के लिए भी है, जो किसी न किसी रूप में अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए, अपनी सत्ता या सरकार चुनने के लिए वोट करते या डालते हैं।

    क्योंकि सबकी शुद्धि का ठेका अकेली गंगा मैया ने ही तो लिया नहीं है! बाकी देश में, बाकी प्रदेशों में भी कोई न कोई जीवन दायिनी नदी तो बहती ही है! कहीं मां नर्मदा है, कहीं सतलुज, रावी और यमुना भी है। वही यमुना जो भगवान श्रीकृष्ण के बचपन की साक्षी है। वही यमुना जिसने बाल-गोपाल को निर्मल जल भी पिलाया और अपनी गोद में भी खिलाया।

    अगर हम मतदाता इन जीवनदायिनी माताओं से भी कोई सीख नहीं लेना चाहते तो माफ कीजिए हमारा कल्याण कभी कोई नहीं कर सकता। कम से कम ये आपराधिक प्रवृत्ति वाले सांसद- विधायक तो नहीं ही कर सकते।

    आजादी मिले इतने बरस हो चुके, लेकिन वोट देने की जो समझदारी हममें आनी थी, या आनी चाहिए, वो अब तक नहीं आ सकी। दरअसल, अपने कीमती या कहें अमूल्य वोट को किसी बहकावे में आकर पानी की तरह बहाने और पांच साल तक फिर अपने ही वोट की खातिर आंसू बहाने, पछताने का हमें शाप मिला है।

    इसी शाप को ढो रहे हैं। जाने कितने वर्षों से। जाने कितने वर्षों तक। कोई उंगली उठाकर कहना नहीं चाहता कि हम अब उन्हीं दलों, उन्हीं नेताओं या प्रत्याशियों को ही वोट देंगे, जो ईमानदार हो, जो जनता की भलाई चाहें या जो राजनीतिक शुचिता के पैमाने पर खरे उतरते हों।

    चार गाड़ियां लेकर, दस भोंपू बजाकर वे नेता पांच साल में एक बार हमारे गांव, शहर या मोहल्ले में आते हैं और हम उनके लिए पलक-पांवड़े बिछाकर खड़े हो जाते हैं! क्यों? क्यों हम उनसे तीखे सवाल नहीं करते?

    क्यों हमारी नागरिक जिम्मेदारी तब उनके आगे भीगी बिल्ली बनकर रह जाती है? आखिर कोई एक कारण तो हो! कोई एक वजह तो हो? सही है, राजनीतिक चकाचौंध की रौशनी इतनी तेज होती है कि आम आदमी को उसके आगे कुछ सूझता नहीं है।

    लेकिन अपनी आंख का तेज भी तो कोई चीज है, जिसमें सही और गलत को अच्छी तरह परखने की शक्ति होती है।

    उसका इस्तेमाल आखिर हम कब करेंगे? अब तक क्यों नहीं किया?

    कम से कम अब तो करो अपनी शक्ति का इस्तेमाल!

    अपने अमूल्य वोट को गंवा देने का शाप हमें मिला है अपने अमूल्य वोट को किसी बहकावे में आकर पानी की तरह बहाने और पांच साल तक फिर अपने ही वोट की खातिर आंसू बहाने, पछताने का हमें शाप मिला है। इसी शाप को ढो रहे हैं। जाने कितने वर्षों से। जाने कितने वर्षों तक।

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  • पं. विजयशंकर मेहता:स्त्री और पुरुष को न्यू नार्मल  के प्रति सहज होना पड़ेगा

    पं. विजयशंकर मेहता:स्त्री और पुरुष को न्यू नार्मल  के प्रति सहज होना पड़ेगा

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    पं. विजयशंकर मेहता:स्त्री और पुरुष को न्यू नार्मल  के प्रति सहज होना पड़ेगा

    5 घंटे पहले
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    पं. विजयशंकर मेहता - Dainik Bhaskar
    पं. विजयशंकर मेहता

    पति-पत्नी के सम्बंधों की न तो कोई स्थायी व्याख्या हो सकती है, और न ही तयशुदा परिभाषा। दाम्पत्य निजी अनुभव है। जितने जोड़े, उतने सिद्धांत। जितने पति-पत्नी, उतने ही अलग-अलग ​किस्से। प्रबंधन की दुनिया में एक शब्द चलता है- न्यू नॉर्मल। इसका सीधा मतलब किसी आपात और अप्रिय स्थिति के बाद की सामान्य दशा है।

    अब इस रिश्ते में भी स्त्री और पुरुष को भी न्यू नार्मल के प्रति सहज और स्वीकृत होना पड़ेगा। रात को हुआ फसाद सुबह प्रेम-वार्तालाप में बदल सकता है। और सुबह का प्रेम शाम होते-होते उपद्रव में तब्दील हो जाएगा। इस​लिए न्यू नॉर्मल की उम्मीद बनाए रखें। प्रबंधन के लोग कहते हैं कि जब ओपन डिस्कशन हो तो हाई ईक्यू यानी इमोशनल कोशेंट बनाए रखना चाहिए।

    यह बात पति-पत्नी को भी समझनी होगी। पहले के जोड़ों में निर्णय किसी एक के हाथ होता था, और खासतौर पर पुरुष के।​ पर अब दोनों डिसीजन-मेकिंग की स्थिति में हैं, क्योंकि अब इस रिश्ते की डोर बहुत महीन हो गई है और जरा से दबाव में भी टूट सकती है।

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  • थॉमस एल. फ्रीडमैन का कॉलम:जब तक हमास के हाथ में  हथियार है, शांति नहीं होगी

    थॉमस एल. फ्रीडमैन का कॉलम:जब तक हमास के हाथ में  हथियार है, शांति नहीं होगी

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    थॉमस एल. फ्रीडमैन का कॉलम:जब तक हमास के हाथ में  हथियार है, शांति नहीं होगी

    5 घंटे पहले
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    थॉमस एल. फ्रीडमैन, तीन बार पुलित्ज़र अवॉर्ड विजेता एवं ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में स्तंभकार - Dainik Bhaskar
    थॉमस एल. फ्रीडमैन, तीन बार पुलित्ज़र अवॉर्ड विजेता एवं ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में स्तंभकार

    धौंस जमाते हुए, शेखी बघारते हुए, अपनी बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहने की ट्रम्प की क्षमता वाकई देखने लायक है। पहले इजराइली संसद और फिर मिस्र में आयोजित एक सभा में दुनिया के 20 से ज्यादा नेताओं को दिए उनके भाषणों में यह पूरी तरह से जाहिर हुआ। लेकिन मैं ट्रम्प को एक सलाह देना चाहूंगा।

    वे ऐसी किसी भी घोषणा करने का जोखिम उठाने से बचें, जो कहती हो कि हम मध्य-पूर्व में शांति की राह पर हैं और इस शां​ति को ट्रम्प की अध्यक्षता वाला पीस-बोर्ड लागू करेगा। इस समझौते को पूरा करने के लिए ट्रम्प को तेजी से आगे बढ़ना होगा और कई चीजें बदलनी होंगी। अभी तक तो मुझे अगले चरण की कोई शुरुआत नजर नहीं आ रही है।

    मुझे ऐसा कोई संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव नहीं दिखाई दे रहा है, जो गाजा में हमास के निरस्त्रीकरण और सुरक्षा की निगरानी के लिए अरब/अंतरराष्ट्रीय शांति सेना की स्थापना करे, जब तक कि वहां किसी फिलिस्तीनी सुरक्षा बल का गठन नहीं हो जाता। गाजा के पुनर्वास के लिए जिन अरबों डॉलर की जरूरत है, वह धनराशि भी मुझे नहीं दिख रही है। और मुझे नहीं पता कि फिलिस्तीनी टेक्नोक्रेट्स के उस मंत्रिमंडल की नियुक्ति और प्रबंधन कौन करेगा, जो गाजा को चलाएगा?

    ट्रम्प प्रशासन के पास नियर-ईस्ट मामलों के लिए एक स्थायी सहायक विदेश मंत्री तक नहीं है। विदेश मंत्री मार्को रुबियो पहले ही अपना काम कर रहे हैं और साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की भी भूमिका निभा रहे हैं। शांति समझौते को आगे बढ़ाने वाले स्टीव विटकॉफ और जेरेड कुशनर के पास अपने-अपने काम हैं।

    जिस चीज ने ट्रम्प को बंधकों की रिहाई, कैदियों की अदला-बदली और युद्धविराम जैसी शानदार सफलताएं दिलाई है, वह मिडिल ईस्ट में तब तक व्यापक शांति नहीं दिला पाएगी, जब तक कि वे बेंजामिन नेतन्याहू और हमास के पर्यवेक्षकों- तुर्किए, मिस्र और कतर के साथ मिलकर कानून नहीं बनाते। पहला चरण बहुत कठिन था, लेकिन आगे आने वाली कठिनाइयों का अभी ट्रम्प को अंदाजा नहीं है।

    ट्रम्प को नेतन्याहू से कहना होगा कि मुझे आपको यहां तक लाने के लिए बहुत जोर लगाना पड़ा। लेकिन अभी मुझे यह जानना है कि अगले चरण में आप मेरे साथ हैं या मेरे खिलाफ? क्या आप इजराइली राजनीति के केंद्र में आकर एक ऐसा गठबंधन बनाने जा रहे हैं, जो एक नए फिलिस्तीनी प्राधिकरण के साथ मिलकर हमास की जगह ले सके और गाजा और वेस्ट बैंक, दोनों पर शासन कर सके? या आप वही खेल जारी रखेंगे, जो आपने 1996 से अमेरिकी राष्ट्रपतियों के साथ खेला है? क्या आप अब भी गाजा में हमास को चुपचाप जिंदा रखने और वेस्ट बैंक में फिलिस्तीनी प्राधिकरण को कमजोर करने की कोशिश करते रहेंगे?

    और कतर, तुर्किए, मिस्र या जो भी अरब देश गाजा में सेनाएं भेजने को तैयार हैं, उनसे ट्रम्प को कुछ ऐसा ही कहना चाहिए : क्या आप हमास को हथियार डालने के लिए मजबूर करेंगे और गाजा में फिलिस्तीनी प्राधिकरण के नेतृत्व की वापसी का रास्ता साफ करेंगे? या आप हमास के साथ चालाकी से पेश आएंगे, जब वो वहां फिर से नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश कर रहा होगा?

    हालांकि हमास ने संकेत दिया है कि वह गाजा का नागरिक शासन किसी अन्य फिलिस्तीनी इकाई को सौंपने को तैयार है, लेकिन समूह ने कभी भी सार्वजनिक रूप से यह पुष्टि नहीं की कि वह हथियार डाल देगा। ट्रम्प ने कहा कि हमास ने उनसे कहा कि वे निरस्त्रीकरण करेंगे, और अगर वे निरस्त्रीकरण नहीं करते हैं, तो हम उन्हें निरस्त्र कर देंगे। लेकिन अगर हमास ह​थियार नहीं डालता है तो इससे नेतन्याहू को युद्ध फिर से शुरू करने का बहाना मिल जाएगा।

    लब्बोलुआब यह है कि अगर ट्रम्प अपनी 20-सूत्रीय योजना को स्थायी क्षेत्रीय शांति में बदलना चाहते हैं, तो उन्हें नेतन्याहू और हमास के बीच के विकृत संबंध को हमेशा के लिए तोड़ना होगा। ये वो संबंध है, जिसने बीते दो दशकों से हमास और नेतन्याहू दोनों को ही राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बनाए रखने में मदद की है। यह अकारण नहीं है कि नेतन्याहू ने हमास को करोड़ों डॉलर पहुंचाने में कतर की मदद की थी और फिलिस्तीनी प्राधिकरण को कमजोर करने के लिए हरसंभव कोशिश की थी।

    हमास ने संकेत दिया है कि वह गाजा का शासन किसी फिलिस्तीनी इकाई को सौंपने को तैयार है, लेकिन उसने सार्वजनिक रूप से यह नहीं कहा कि वह हथियार डाल देगा। अगर ऐसा नहीं होता है तो इससे नेतन्याहू को युद्ध फिर से शुरू करने का बहाना मिल जाएगा। (द न्यूयॉर्क टाइम्स से)

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