अमेरिका को बड़ा झटका, 20 साल में पहली बार पॉवरफुल पासपोर्ट की लिस्ट में टॉप-10 से बाहर
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एन. रघुरामन का कॉलम:‘री-कनेक्ट’ : जेन-जी ने निकाला बिना फोन के आपस में जुड़ने का नया तरीका
सेंट्रल एम्स्टर्डम के एक चर्च में 2024 में 200 से अधिक लोग एकत्र हुए, लेकिन वे वहां किसी धार्मिक कार्यक्रम में नहीं आए थे। 400 साल पुराने विशाल प्रोटेस्टेंट चर्च में वे इसलिए आए, ताकि डिजिटल दुनिया से थोड़ी राहत पा सकें। चर्च में पत्थर के फर्श पर रंगीन तकियों पर बैठकर, गोल्डन शैंडलियर और ऊंची छत के नीचे प्रतिभागियों ने कुछ पढ़ा और स्केच किया। कुछ लोगों ने छोटे समूह बनाकर पट्टीनुमा बड़े कागजों पर रंग भरे और बातचीत की। कुछ अन्य बस यहां-वहां टहले। यह दृश्य लगभग एक कार्यस्थल जैसा था, बस वहां लैपटॉप और फोन नहीं थे। आयोजकों द्वारा ‘डिजिटल डिटॉक्स हैंगआउट’ कहे गए इस इवेंट के वीडियो वायरल हो गए। शायद यह बताता है कि आज एक साथ इकट्ठा होकर समय बिताना कितना असामान्य हो गया है। उसी साल फरवरी में लॉन्च हुए इस समूह ने पहले बिना इंटरनेट वाले ‘रीडिंग वीकेंड’ आयोजन शुरू किए। लेकिन संस्थापक शहर को डिजिटल-फ्री अनुभव देना चाहते थे, ताकि लोग इन्हें अपनी दिनचर्या में शामिल कर सकें। हालांकि, इस वायरल वीडियो का छात्र समुदाय में तो कोई असर नहीं पड़ा। कैम्पस के इलाकों में विद्यार्थियों को देखें। लंच टाइम में लैपटॉप और टैबलेट उनके साथी हैं। नींद के अलावा 16 घंटे तक ईयरबड्स उनके साथ रहते हैं। कभी-कभी बच्चे जब थककर सो जाते हैं तो माताएं उनके कानों से इन्हें निकालती हैं। कॉलेज जाने वाले युवाओं को देखें तो वे लगभग हर वक्त मोबाइल फोन अपने हाथों में कस कर पकड़े रहते हैं। लेकिन उन्होंने समस्या का हल ढूंढ लिया है। यह समाधान है ‘री-कनेक्ट’। जी हां, यह संगठन खास तौर से लोगों के लिए इवेंट और रिट्रीट आयोजित करता है, ताकि वे तकनीकी से दूर होकर असल जीवन के संवाद में शामिल हो सकें। ‘री-कनेक्ट’ और इसके जैसे अन्य कार्यक्रम डिजिटल डिटॉक्स और इन-पर्सन कम्युनिटी को बढ़ावा देने की व्यापक पहल का हिस्सा हैं। एक विशेष ‘री-कनेक्ट’ कार्यक्रम में सामूहिक आर्ट प्रोजेक्ट, लाइव म्युजिक सुनना, समूह अध्ययन व चर्चा और डिजिटल भटकाव के बिना सार्थक बातचीत जैसी गतिविधियां शामिल होती हैं। सेंट्रल फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के 22 वर्षीय विद्यार्थी सीन किलिंग्सवर्थ द्वारा स्थापित यह आंदोलन पहले ही अमेरिका के चार प्रांतों के कई स्कूलों में फैल चुका है। यह कैसे काम करता है? एक दोपहर में लगभग 40 छात्र अपने डिवाइस ‘फोन वैलेट’ को सौंपने के बाद एक साथ आते हैं। जैसे फाइव स्टार होटलों में कार वैलेट होता है, वैसे ही यहां फोन वैलेट आपके डिवाइस एकत्रित करता है। सभी छात्रों को कंबलों पर आलथी-पालथी मारकर अगला एक घंटा बिना किसी स्क्रीन के बिताने की तैयारी करनी होती है। कई छात्र पहले आई-कॉन्टेक्ट और फिर छोटी-मोटी बातचीत से शुरुआत करते हैं। कुछ असहज भी होते हैं और स्क्रॉल करने के लिए कुछ तलाश करते हैं। पहले वे अपने टैटू और पालतू जानवरों जैसे टॉपिक से शुरू करते हैं और धीरे-धीरे बातचीत दिलचस्प हो जाती है। अंत तक वे एक-दूसरे को भलीभांति जान लेते हैं और उन्हें महसूस होता है कि बातचीत करना उतना मुश्किल नहीं, जितना वो सोचते हैं। यह आंदोलन धीरे-धीरे एक नया रूप ले रहा है। री-कनेक्ट के प्रतिभागी अब हाइकिंग के लिए इकट्ठा हो रहे हैं। इसके बाद कुकआउट होता है। कुछ कलाकृति बनाते हैं, तो कुछ मेडिटेशन करते हैं। ऐसी गतिविधियों से अंतत: छात्र कैम्पस के कमरों से निकलने लगे हैं, अन्यथा वे मेस का खाना खाकर बिस्तरों पर लोटते रहते। इस मामले में जब उनकी राय पूछी गई तो किशोरों ने बताया कि डिवाइस से ब्रेक लेकर उन्हें अच्छा लग रहा है। प्यू रिसर्च सेंटर के एक अध्ययन में पाया गया कि 75% किशोरों ने उस वक्त खुशी और शांति महसूस की, जब उनके पास स्मार्टफोन नहीं था। शेष ने स्वीकारा कि इससे उन्हें चिंता, परेशानी और अकेलापन महसूस हुआ। भारत के विश्वविद्यालयों को भी दीपावली की छुट्टियों से लौटने पर अपने युवा ऑडियंस के लिए डिजिटल डिटॉक्स के तरीके तलाशने चाहिए। फंडा यह है कि यदि आप जेन-जी हैं तो वास्तविक दोस्तों के साथ स्क्रीन के बजाय आमने-सामने बैठकर ‘री-कनेक्ट’ करने का तरीका ढूंढें। आपको अंतर दिखेगा।
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पं. विजयशंकर मेहता का कॉलम:हर चीज के आरम्भ, मध्य और अंत में ईश्वर को रखें
कथाओं के केंद्र में ईश्वर ही होता है। उसकी प्रस्तुति सब अपने-अपने ढंग से करते हैं। इसी से वक्ता की प्रतिष्ठा स्थापित होती है। कुछ वक्ता कथा में गिमिक्स जोड़ लेते हैं- नाच, गाना, किस्से, कहानी। समझदार श्रोता उसमें ईश्वर ढूंढता रहता है। शंकर जी कहते हैं कि सत्संग में ऐसी कथा सुनी जाए, जिसके आदि, मध्य और अंत में भगवान श्रीराम हों- जेहि महुं आदि मध्य अवसाना, प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना। इस मामले में व्यास जी, जिन्होंने वेद-पुराण की रचना की- अद्भुत थे। उनका हर दृश्य ईश्वर से आरम्भ होता, मध्य में ईश्वर के दिए हुए संदेश गुजरते और समापन पर पुन: परम-शक्ति को वो स्थापित कर देते। इस हुनर में तुलसीदास जी भी गजब के निकले। रामचरितमानस में जितने दृश्य आते हैं, अगर हम बारीकी से ढूंढें तो आरम्भ, मध्य और अंत में हम ईश्वर को पा लेंगे। तो क्यों ना हम इस तरीके को जीवन की हर गतिविधि से जोड़ें। जो भी करें, तीनों समय ईश्वर को साथ रखें- आरंभ, मध्य और अंत में।
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राजदीप सरदेसाई का कॉलम:सीजेआई पर फेंके जूते का निशाना न्याय व्यवस्था थी
एक सवाल है। अगर सीजेआई पर कोर्ट में जूता फेंकने वाले वकील का नाम राकेश किशोर के बजाय रहीम खान होता तो क्या होता? क्या उसे बिना सजा छोड़ा जाता? या उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, जन सुरक्षा कानून (अगर वो कश्मीरी मुसलमान होता तो) या गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून के तहत आरोप लगाए जाते? यहां मेरा मकसद किसी को भड़काना नहीं, बल्कि उस इको-सिस्टम को उजागर है, जिसमें लोगों की धारणाएं न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं। पिछले महीने सीजेआई गवई ने खजुराहो के एक मंदिर में भगवान विष्णु की क्षतिग्रस्त मूर्ति के पुनर्निर्माण की याचिका खारिज कर दी थी। इसे जनहित याचिका के बजाय ‘प्रचार-हित याचिका’ बताते हुए गवई ने कहा था कि याचिकाकर्ता को याचिका दायर करने के बजाय स्वयं भगवान से ही कुछ करने के लिए कहना चाहिए। यहां पर जज का यह व्यंग्यात्मक लहजा यकीनन गैरजरूरी था। लेकिन ध्यान रखें कि ये महज टिप्पणियां थीं। याचिका तो इसलिए खारिज की गई, क्योंकि कोर्ट ने कहा कि इस पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण निर्णय करेगा। लेकिन सोशल मीडिया पर बैठी ‘हथियारबंद’ सेना के पास फैसले के तर्क पढ़ने का समय कहां था? उन्माद फैलाने के लिए जस्टिस गवई की टिप्पणी ही काफी थी। सुनियोजित आक्रोश ने सीजेआई को यह सफाई देने को मजबूर कर दिया कि वे सभी धर्मों में आस्था रखते हैं, सभी प्रकार के धर्मस्थलों में जाते हैं और ‘सच्ची धर्मनिरपेक्षता’ में उनका भरोसा है। लेकिन यह स्पष्टीकरण आक्रोशित भीड़ को शांत करने के लिए काफी नहीं था। मीम्स, हैशटैग और यूट्यूब वीडियो के जरिए गवई की निंदा चलती रही। इसी तनावपूर्ण माहौल में एक 71 वर्षीय वकील ने गवई पर जूता फेंकने का फैसला कर लिया। ‘सनातन धर्म का अपमान, नहीं सहेगा हिंदुस्तान’। ऐसी किसी घटना पर दिल्ली पुलिस स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई करती, लेकिन उसने हाथ बांधे रखे। गवई ने बड़ी गरिमा के साथ इस मामले में मुकदमा दर्ज कराने से इनकार कर दिया, लेकिन उन वकील ने कहा- ‘मैं फिर से ऐसा करूंगा’। मानो, उन्हें भरोसा हो कि अदालत की स्पष्ट अवमानना के बावजूद कानून उन्हें छू भी नहीं सकता। हमें इस पर अचम्भा भी नहीं होना चाहिए। क्योंकि कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने भी इस मामले पर चुप्पी साधे रखी। प्रधानमंत्री को यह ट्वीट करने में आठ घंटे लगे कि जूता फेंकना ‘एक निंदनीय कार्य है, जिसने हर भारतीय को नाराज किया है।’ प्रधानमंत्री के कड़े शब्द स्वागतयोग्य हैं, लेकिन याद करें कि जब 2019 में भाजपा सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने गोडसे का महिमामंडन किया था, तब भी पीएम ने कहा था कि वे प्रज्ञा को कभी भी पूरी तरह माफ नहीं कर पाएंगे। लेकिन साध्वी के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं की गई। एडवोकेट किशोर भी ऐसी ही विचारधारा का हिस्सा हैं, जहां कोई भी खुद को सनातन का ‘रक्षक’ मान बैठता है। अंतर बस इतना है कि गोडसे की तुलना में किशोर ने गुस्सा निकालने के लिए एक अपेक्षाकृत निरापद हथियार को चुना। लेकिन दोनों ही मामलों में निहित असहिष्णुता की मानसिकता से इनकार नहीं किया जा सकता। कथित तौर पर ‘हिंदुओं की भावनाओं को ठेस’ पहुंचाने वाला कोई भी कृत्य हिंसक प्रतिक्रिया के लिए काफी है। ये लोग उन इस्लामिस्टों से कितने अलग हैं, जो भावनाएं आहत होने का दावा करते हुए ‘सर तन से जुदा’ का नारा लगाते हैं? आहत भावनाओं के गणतंत्र में हिंसा का सामान्यीकरण क्यों किया जाता है? इस मामले का एक और पहलू परेशान करने वाला है। जस्टिस गवई सीजेआई के उच्च संवैधानिक पद पर आसीन हुए दलित वर्ग के दूसरे व्यक्ति हैं। उनके पिता आरएस गवई रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया आंदोलन में एक प्रमुख चेहरा थे। जस्टिस गवई का इस पद तक पहुंचना किसी आम्बेडकरवादी के लिए एक ऐसे समाज का सपना पूरा होने जैसा है, जिसमें उत्पीड़ित जातियों के लिए समान अवसर उपलब्ध हों। दलित आंदोलन वाले परिवार की पृष्ठभूमि से होने के कारण जस्टिस गवई के लिए ऐसे सुनियोजित हमलों का जोखिम और बढ़ जाता है। एक साल पहले जब जस्टिस गवई ने ‘बुलडोजर न्याय’ के खिलाफ एक आदेश देते हुए इसे असंवैधानिक बताया था, तब भी वे दक्षिणपंथियों के ऑनलाइन दुष्प्रचार अभियान के शिकार बने थे। इसीलिए जूता फेंकने की घटना को वैसे ही देखना चाहिए, जैसी वह है- एक धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक ढांचे में किसी धर्म की सर्वोच्चता थोपने की कोशिश। उसका निशाना जस्टिस गवई नहीं थे, उसका लक्ष्य तार्किक और निष्पक्ष समझी जाने वाली न्याय व्यवस्था को कमजोर करना था। जूता फेंकने की घटना केवल जस्टिस गवई ही निशाने पर नहीं थे। उसका लक्ष्य तार्किक और निष्पक्ष समझी जाने वाली न्यायिक व्यवस्था को कमजोर करना था। आहत भावनाओं के गणतंत्र में हिंसा का सामान्यीकरण क्यों किया जाता है? (ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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नीरजा चौधरी का कॉलम:तालिबान को हमारी महिला- शक्ति का एहसास हुआ है
शुक्रवार को अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी की प्रेस कॉन्फ्रेंस से महिला पत्रकारों को वापस भेज दिया गया था। इससे देश में हंगामा मच गया। अगर रविवार को इस भूल को सुधारा नहीं गया होता तो यही उनकी छह दिवसीय भारत यात्रा का सबसे बड़ा संदेश साबित होता। लेकिन रविवार की सुबह मुंबई स्थित तालिबान सरकार के महाधिवक्ता- जो भारत में तैनात उनके एकमात्र राजनयिक हैं- ने पत्रकारों को मुत्ताकी की दूसरी प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए व्यक्तिगत निमंत्रण भेजा, जिनमें लगभग 30 महिला मीडियाकर्मी भी शामिल थीं। यह कॉन्फ्रेंस नई दिल्ली स्थित अफगान दूतावास परिसर में हुई। जाहिर है कि तालिबानी सरकार शुक्रवार की अपनी भूल को सुधार रही थी। वहीं भारत और अफगानिस्तान ने एक-दूसरे के साथ बातचीत की प्रक्रिया फिर से शुरू कर दी है। लेकिन शुक्रवार की प्रेस कॉन्फ्रेंस से महिला पत्रकारों को बाहर करने से राजधानी में बवाल मच गया था। कांग्रेस की प्रियंका गांधी और टीएमसी की महुआ मोइत्रा ने भी इस तरह से महिलाओं के साथ भेदभाव किए जाने पर नाराजगी जताई। मीडिया संगठनों ने सवाल उठाया कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ऐसा कैसे हो सकता है, जहां महिलाओं को कानूनी और संवैधानिक रूप से समान अधिकार प्राप्त हैं, और इसमें बिना किसी पूर्वग्रह के पेशेवर के रूप में काम करने का अधिकार भी शामिल है? हालांकि अफगानिस्तान दूतावास तकनीकी रूप से अफगानिस्तान का क्षेत्र है, फिर भी कई लोगों ने सवाल उठाया है कि अफगान शासन भारतीय महिलाओं पर तालिबानी मूल्य कैसे थोप सकता है, और वह भी भारतीय धरती पर? और तो और, भारत सरकार ने ऐसा कैसे होने दिया? अलबत्ताविदेश मंत्रालय ने महिला पत्रकारों को बाहर रखने के फैसले में अपनी किसी भी भूमिका से इनकार किया था। भारत में सत्तारूढ़ दल जानता है कि महिलाएं एक महत्वपूर्ण वोटबैंक हैं और उन्हें नाराज करना उनके लिए मुनासिब नहीं होगा- खासकर बिहार में आसन्न महत्वपूर्ण चुनावों को देखते हुए, जहां ‘एम’ (महिला) फैक्टर के मायने रखने की संभावना है। शुक्रवार के हंगामे के बाद 36 घंटों में भारत सरकार डैमेज-कंट्रोल मोड में आई और तालिबान सरकार के प्रतिनिधियों को भी ऐसा करने के लिए राजी कर लिया। दिलचस्प बात यह है कि रविवार की प्रेस कॉन्फ्रेंस में आमंत्रित महिलाएं मुख्य रूप से वे थीं, जो विदेश मामलों की रिपोर्टिंग करती हैं। मुत्ताकी को रविवार को ताजमहल देखने आगरा जाना था, लेकिन उन्हें अपना कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। उन्होंने 70-80 पत्रकारों के साथ एक और प्रेस कॉन्फ्रेंस की, जिनमें से लगभग आधी महिलाएं थीं। सभी महिलाएं आगे की पंक्तियों में बैठी थीं और उन्होंने भारतीय परिधान पहने हुए थे। उनमें से किसी ने अपना सिर नहीं ढांका था। न ही अफगान सरकार की ओर से ऐसी कोई शर्त लगाई गई थी। देर आए दुरुस्त आए। दोनों देशों के बीच चल रही बातचीत में इतना कुछ दांव पर लगा था कि न तो भारत और न ही तालिबान के नेतृत्व वाला अफगानिस्तान दुनिया में गलत संदेश जाने का जोखिम उठाना चाहता था। वे नहीं चाहते थे कि मुत्ताकी की यात्रा जेंडर सम्बंधी भेदभाव पर केंद्रित होकर रह जाए, जबकि मूल कहानी पाकिस्तान और क्षेत्र में उभर रही नई भू-राजनीतिक वास्तविकताओं से निपटने के लिए एक नई भारत-अफगान साझेदारी है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने काबुल में भारतीय दूतावास को फिर से खोलने की घोषणा की और मुत्ताकी ने कहा कि वे नई दिल्ली में और राजनयिक भेजेंगे। उन्होंने भारत को दुर्लभ खनिजों के खनन में मदद के लिए भी आश्वस्त किया। ध्यान रहे कि भारत अफगानिस्तान को मान्यता नहीं देता है, क्योंकि 2021 में तालिबान द्वारा उस पर कब्जा करने के बाद जब अमेरिकी नेतृत्व वाली नाटो सेनाएं वहां से वापस लौट आई थीं तो भारत ने उसके साथ संबंध तोड़ लिए थे। लेकिन अब दोनों देश भारत-अफगानिस्तान संबंधों को फिर से स्थापित करने की प्रक्रिया में हैं। भारत और अफगानिस्तान दोनों ही पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के शिकार रहे हैं। हाल ही में काबुल में विस्फोट हुए थे, जिसके बाद अफगान बलों ने पाकिस्तानी सैनिकों पर जवाबी कार्रवाई की थी। भारत तो लंबे समय से आतंकवाद का सामना कर ही रहा है। ऑपरेशन सिंदूर के समय इजराइल के अलावा तालिबान के नेतृत्व वाला अफगानिस्तान ही एकमात्र ऐसा देश था, जो उस समय भारत के साथ खड़ा था। तालिबान को आज नहीं तो कल महिलाओं से संवाद करना ही होगा- चाहे वह यूएन में हो या दुनिया की राजधानियों में महिला प्रधानमंत्रियों (इटली और जापान) के साथ। तमाम जगहों के मीडिया में भी महिलाएं होंगी ही।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं।) -
एन. रघुरामन का कॉलम:खुशी पाने के लिए वर्तमान में मौजूद रहना जरूरी है
भगवान कृष्ण, जिन्हें हम ठाकुर जी भी कहते हैं, उन्हें सुबह 7:30 बजे ‘श्रृंगार आरती’ के समय सुंदर वस्त्र–आभूषण पहनाए जाते हैं। यह परंपरा आस्था के साथ ही एक अटूट मान्यता का हिस्सा भी है कि हम अधिकांश भारतीय अपने भगवान को एक जीवित व्यक्ति की तरह मानते हैं। ये वस्त्र मौसम के अनुसार बदलते भी हैं। जैसे, सर्दियों में गर्म ऊनी कपड़े और गर्मियों में हल्के सूती वस्त्र। जन्माष्टमी और होली जैसे विशेष त्योहारों पर विशेष वस्त्र भी पहनाए जाते हैं। हर दिन शयन से पहले भगवान रात्रि वस्त्र पहनते हैं। वस्त्र बदलने की यह प्रथा अधिकतर मंदिरों की संस्कृति है। लेकिन दक्षिण भारत और मथुरा-वृंदावन में यह खास तौर पर नजर आती है, जहां ‘पोशाक’ कहे जाने वाले इन वस्त्रों के निर्माण से अर्थव्यवस्था भी संचालित होती है। बांके बिहारी मंदिर (भगवान कृष्ण का एक नाम) जाने वाले हम में से अधिकतर को शायद यह याद नहीं होगा कि जिस दिन हमने दर्शन किए, उस दिन उन्होंने कौन से वस्त्र पहने थे। क्योंकि तब शायद हमारा मन उनसे बातचीत कर अपनी समस्याएं बताने, इच्छित फल का आशीर्वाद पाने या उनके प्रति कृतज्ञता जताने का होता है। लेकिन हम में से अधिकांश उनसे यह कहना भूल जाते हैं कि वे कितने मनमोहक लग रहे हैं।‘ अरे मिस्टर रघुरामन, आपको क्या लगता है कि भगवान हम इंसानों की तारीफ का इंतजार कर रहे हैं?’ मुझे पता है कि कुछ लोगों का मन ऐसा सवाल पूछ रहा होगा। हमारी ऐसी सोच इसलिए हो सकती है, क्योंकि मंदिर में भीड़ हमें धक्का मार रही होती है। या फिर, हमारे पास दर्शन के लिए केवल एक दिन ही होता है और हम यह सोच रहे होते हैं कि इतने कम समय में हम क्या–क्या कर सकते हैं? चेन्नई में हिन्दू अखबार के एक रिटायर फोटोग्राफर के बारे में जानने से पहले मैं भी ठीक ऐसे ही सोच रहा था। वह फोटोग्राफर रोजाना सुबह 7:30 बजे से पहले कृष्ण जन्मभूमि मंदिर (केजेबी) के गर्भगृह के बाहर डेरा डाले रहते थे। वह श्रृंगार आरती के दर्शन करते और मंदिर प्रशासन की अनुमति से विविध पोशाकों में भगवान की सुंदरता कैमरे में रोज कैद करते थे। उन्हें कई लोगों ने एक बड़े–से डीएसएलआर कैमरे के साथ दर्शन खुलने की प्रतीक्षा करते देखा था। मुझे ये घटनाएं तब याद आईं जब मैं इस रविवार को कुछ हॉस्टल छात्रों से मिला। उन्होंने मुझसे कहा कि ‘यह रविवार इस साल का सबसे बोरिंग रविवार है और अगला रविवार सबसे रोमांचक होने वाला है।’ विश्वविद्यालय के हरे-भरे बगीचे की घास पर चलते हुए वे अगले रविवार के बारे में सोच रहे थे, जिसे वे दीपावली की छुट्टियों के कारण अपने माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ बिताने वाले हैं। और इसी चक्कर में वे उनके मौजूदा रविवार का भी आनंद नहीं ले रहे थे। मैं उन्हें दोष नहीं दे रहा। सड़क पर चलते हम में से बहुत–से लोग दिमाग का बहुत छोटा हिस्सा वर्तमान में लगाते हैं। अधिकतर या तो भविष्य की योजना बनाते हैं, या फिर अतीत पर पछतावा करते हैं। यह हमें हर गुजरते पल का अद्भुत अनुभव लेने से रोकता है। यदि आप कैंपस में अकेलापन महसूस कर रहे हैं, तो ये तीन चीजें करें। 1. खुद से बात करें। भावनाओं से भागने की कोशिश ना करें। यह जानने की कोशिश करें कि भावना आपसे क्या कह रही है। 2. समीप के पार्क में टहलें। घास को महसूस करें। किसी पेड़ की छाया या धूप में बैठें। लोगों को देखें और संगीत सुनें। 3. पूजा स्थलों पर जाएं। समाजसेवा करें या स्टोर में एक दिन का गिग जॉब करें। फंडा यह है कि मैंने कहीं पढ़ा है कि ‘इनलाइटमेंट’ आपके दो विचारों के बीच का स्थान है। इसका मतलब है कि खुशी ऐसी चीज नहीं, जो आप कई साल बाद महसूस करेंगे। यह कुछ ऐसा है, जिसे आप आज ही पल–पल हासिल कर सकते हैं। और, हर एक दिन कुछ प्रतिशत खुशी या ‘इनलाइटमेंट’ इसमें जुड़ता जाता है।