एन. रघुरामन का कॉलम:गांवों में पटाखे तरह-तरह की मिट्टी की खुशबू लेकर आते हैं!

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14 मिनट पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

इस महीने की शुरुआत में जब मैं अपने पैतृक गांव में पारिवारिक पूजा-अर्चना के लिए गया था, तो मैंने देखा कि गांव सीधे-सीधे दो हिस्सों में बंटा हुआ था। 1,200 से भी कम आबादी वाले उस छोटे-से गांव में ज्यादातर लोग आम लोगों जैसे कपड़े पहने हुए थे। पुरुष साधारण लेकिन चमकीली सूती-धोती पहने थे, मानो उन पर इस्तरी की गई हो। लेकिन असल में ऐसा नहीं था- उनका रोजाना रस्सी पर कपड़े सुखाने का तरीका ही कुछ ऐसा था।

मुझे याद नहीं आता कि अपनी अब तक की यात्राओं में मैंने उस गांव में कभी कोई वॉशिंग मशीन देखी हो। वहां ज्यादातर महिलाएं नौ गज की साड़ी पहने हुए थीं और उन्होंने जिस तरह से इस पेचीदा परिधान को पहना था, वह कई शहरी महिलाओं के पहनावे के हुनर ​​पर सवालिया निशान लगा सकता है। हालांकि गांव में एकत्र हुए हम जैसे ज्यादातर आगंतुकों के पास रेशमी धोती थी।

मुझे नहीं पता कि उन महंगी रेशमी धोतियों ने उन्हें पहनने वालों में गर्व जगाया था या नहीं, लेकिन मुझे यकीन था कि इसने कम से कम उन गांव वालों को बिलकुल भी लज्जित नहीं किया।उन्होंने उन्हें देखा जरूर, लेकिन उनकी आंखें वाह कहते हुए ठिठक नहीं गईं। वे कच्ची सड़क पर चुपचाप चलते रहे। वे जानते थे कि ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते हुए उन्हें सावधान रहना होगा। वे यह भी जानते थे कि छोटी-छोटी रुकावटें भी उन्हें ठोकर खाकर गिरा सकती हैं।

उनके विपरीत, मैंने हम लोगों के बीच कुछ असुरक्षित ओवर-अचीवर्स को देखा। उनकी महत्वाकांक्षाएं उनकी चिंताओं के अनुरूप थीं, और वे अद्भुत ढंग से आदर्शवादी थे। ज्यादातर आगंतुक उस गांव की समस्याओं को हल करने के लिए दृढ़ थे। कम से कम उनकी बातचीत से तो उनके पक्के इरादों का ही पता चलता था। उनमें से कुछ लोग गरीबी मिटाना चाहते थे तो कुछ उस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाना चाहते थे जिसकी देखभाल इतनी अच्छी तरह से नहीं की जा रही थी। लेकिन किसी ने उस गांव के स्कूल और उसकी शिक्षा के स्तर के बारे में बात नहीं की।

ऐसा इसलिए है क्योंकि इसके लिए व्यक्तिगत रूप से समय और ध्यान देने की आवश्यकता होती है, जो कोई नहीं दे सकता। दुर्भाग्य से, हम शहरवासी विकल्पों के जाल में फंसे हुए हैं! ये सच है कि आज के जॉब-मार्केट में शहर अच्छी कमाई के वादे के साथ अपने दरवाजे सबके लिए खोलते हैं। लेकिन हम इस सोच के पाश में फंस गए हैं कि पैसों से आराम को भी खरीदा जा सकता है। जबकि शहरों की नौकरियां अकसर इससे विपरीत परिणाम देती हैं और उसकी कीमत हमारे मानसिक स्वास्थ्य को चुकानी पड़ती है। जब भी मैं गांव वालों को देखता हूं, मुझे महसूस होता है कि दुनिया लालच से नहीं चलती।

जब मैं वहां खड़ा था और मुझे प्यास लग रही थी, तो एक खेत मालिक ने मुझसे कुछ पूछा तक नहीं, उसने बस मेरा चेहरा, उसके भाव और शायद मेरी गतिवि​धियां देखीं- जिस तरह मैं एक बड़े तौलिये से अपना चेहरा पोंछ रहा था। और उसने अपने खेत मजदूर से कहा, गणेश, ऊपर चढ़ो और दो नारियल ले आओ। हमारे मेहमान को प्यास लग रही है। पल भर में गणेश पेड़ पर ऐसे चढ़ गया मानो वह कान फिल्म समारोह का रेड कार्पेट हो और न सिर्फ नारियल ले आया, बल्कि उन्हें काटकर मुझे पीने के लिए दे दिया। उनमें से किसी ने भी मेरे पैसे देने की अपेक्षा नहीं की। मैंने ही शिष्टाचारवश ऐसा किया।

यही वजह है कि मुझे लगा ग्रामीणों का जीवन अधिक सूक्ष्म शक्तियों के आधार पर चलता है- वेदों और उपनिषदों के ज्ञान का सम्मान, अपना मनचाहा भोजन उगाकर खाने का गर्वीला संतोष, और अन्य असीमित विकल्प जो बेहतरी की ओर ले जाते हैं। उन चार दिनों में जब हम वहां रुके, मैंने अपने सभी रिश्तेदारों को उस गांव के वंचित स्कूल में कुछ घंटे पढ़ाने के लिए राजी कर लिया। क्योंकि वे बच्चे चूहा-दौड़ में शामिल नहीं होना चाहते थे, बल्कि वे कुछ ऐसे उपाय जानना चाहते थे, जो उनके जीवन को थोड़ा बेहतर बना सकें।

फंडा यह है कि अपने पुश्तैनी गांवों में दीपावली मनाने से बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है, खासकर हमारे बच्चों को। गांवों के रंग में घुलने-मिलने से उस जगह का असली स्वाद मिलता है, इसके अलावा आप कुछ पैसे खर्च करके गांव की अर्थव्यवस्था को भी मजबूत बनाते हैं। तो इस साल जरूर कोशिश करें। आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएं।

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