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- Lt. Gen. Syed Ata Hasnain’s Column: The 1965 War Holds Many Lessons Even Today
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भारत और पाकिस्तान के बीच 1965 में हुए युद्ध को उतनी प्रसिद्धि नहीं मिली, जिसका वह हकदार है। यह युद्ध 1962 की हार और 1971 की जीत के बीच कहीं खो जाता है। लेकिन असल में यह भारत के पुनरुत्थान का युद्ध था, जो पाकिस्तान की गलतफहमी से उपजा था और भारतीय नेतृत्व ने उसका दृढ़ता से जवाब दिया।
यह युद्ध पूरी तरह से अयूब खान की पहल था। पाकिस्तानी सैन्य शासक का मानना था कि 1962 में चीन से अपमानित भारत की फौजी ताकत अभी भी कमजोर है। ऐसे में कश्मीर को छीना जा सकता है। अयूब बार-बार दोहराते थे कि एक पाकिस्तानी सैनिक, दस भारतीय सैनिकों के बराबर है।
उनके इसी भ्रम ने क्षमता के बजाय भावनाओं पर टिकी लापरवाह रणनीति को बढ़ावा दिया। 1965 की गर्मियों में पाकिस्तान ने ऑपरेशन जिब्राल्टर के तहत जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र घुसपैठियों को घुसाया। उसका मानना था कि कश्मीरी अवाम भारत के खिलाफ विद्रोह करते हुए घुसपैठियों स्वीकार कर लेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
घुसपैठ के लिए सबसे तेज रास्ता होने के नाते हाजी पीर दर्रा बेहद जोखिमपूर्ण हो गया था। भारत का इस पर कब्जा करने का फैसला साहस भरा था। त्वरित और बेहद हैरतअंगेज तरीके से किए ऑपरेशन में भारतीय सेना ने घुसपैठ के रास्ते बंद कर दिए।
इससे सैन्य संसाधन अखनूर सेक्टर में जाने के लिए तैयार हो पाए। लेकिन सबसे बड़ा खतरा अखनूर में ही था। पाकिस्तान ने छंब-जौरियन एक्सिस में ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम लॉन्च कर दिया। 12 इन्फैंट्री डिवीजन की कमान संभाल रहे मेजर जनरल अख्तर हुसैन मलिक ने बढ़त ली।
अखनूर पुल तक रास्ता खुल गया। लेकिन उन्हें अचानक हटा दिया गया। कारण था उनका अहमदिया या कादियानी समुदाय से होना, जिसे पाकिस्तानी सियासत में गैर-मुस्लिम माना जाता है। पाकिस्तान के कई लाेग नहीं चाहते थे कि जीत का सेहरा उनके सिर बंधे। अब जिम्मेदारी मेजर जनरल याह्या खान को मिली। याह्या ने कमान संभालने के लिए 24 घंटे के सामरिक विराम का आदेश दिया। इसी विराम ने युद्ध को बदल दिया!
उन 24 घंटों में भारत ने 20 लांसर्स को पूरी ताकत के साथ अखनूर भेज दिया। पाकिस्तान ने दोबारा हमला शुरू किया, लेकिन अब लय-ताल बिगड़ चुकी थी। जम्मू-पुंछ सम्पर्क को तोड़ने का मौका उसके हाथ में नहीं था।
युद्ध के बाद हुए ताशकंद समझौते के अनुसार भविष्य में अखनूर की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भारतीय सेना को हाजी पीर से पीछे हटना पड़ा। लेकिन युद्ध में भारत का पलड़ा भारी था। लाहौर मोर्चा खोलने से हालात बदल गए। डोगराई में 3-जाट की जीत युद्ध के सबसे साहसिक कारनामों में से एक रही।
पाकिस्तान के पास 1-आर्मर्ड डिवीजन के रूप में एक और छिपा हुआ हथियार था, जो छंगा-मंगा के जंगलों में छिपी बैठी थी। जब यह ब्यास नदी की ओर बढ़ी तो जालंधर के लिए खतरा पैदा हो गया। लेकिन, लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह ने हार नहीं मानी।
असल-उत्तर और वल्टोहा में उन्होंने पाकिस्तानी पैटन टैंकों का कब्रिस्तान बना दिया। सेंट्रल सेक्टर में स्थिरता आने के बाद हरबख्श ने सियालकोट पर ध्यान केंद्रित किया। यहां चविंडा और बट्टूर डोगरांडी में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के सबसे बड़े टैंक युद्ध लड़े गए।
पूना हॉर्स और 8-गढ़वाल राइफल्स के मेजर अब्दुल रफी खान जैसे अधिकारियों ने ख्याति पाई। सितंबर के मध्य तक दोनों पक्ष थक चुके थे। कोई भी एक-दूसरे की रणनीतिक इच्छाशक्ति को नहीं तोड़ पाया। पर भारत ने कुछ बड़ा हासिल कर लिया था- आत्मविश्वास।
हमेशा की तरह पाकिस्तान ऐसी धारणाएं बनाने में सफल रहा, जो परिणामों से इतर थीं। उसने 6 सितंबर को ‘विजय दिवस’ घोषित कर दिया- ये वो दिन था, जब भारतीय सैनिक लाहौर में घुसने से पहले ही रुक गए थे। आज जब भारत में थिएटर कमांड्स पर बहस चल रही है तो यह युद्ध एक और विचार देता है।
1965 में बेहद दबाव के बीच भी हरबख्श सिंह का नियंत्रण कई क्षेत्रों में फैला हुआ था। डिजिटल युग में क्या आज भी ऐसी कमांड कारगर हो सकती है? 1965 का युद्ध 1962 के बाद भारत की वापसी की परीक्षा थी। इसने साबित किया कि हमारी सेना लड़ सकती है, समायोजन कर सकती है और सबसे बढ़कर, फिर से अपना सम्मान हासिल कर सकती है!
अपने सैन्य अतीत को भूल जाने वाले देश के लिए रणनीतिक गलतियां दोहराने का जोखिम बना रहता है। 1965 के युद्ध का अध्ययन किसी युद्ध का महिमामंडन करना नहीं, बल्कि यह समझना है कि नेतृत्व और साहस क्या है और सैन्य निर्णयों के परिणाम क्या होते हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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