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- N. Raghuraman’s Column Whose Fault Is It That Genzi Doesn’t Handle The Emergency?
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मुंबई, 22 मई 1991 को थम गई थी। सड़कें सुनसान थीं और शोरगुल वाले शहर में चिड़ियों की चहक सुनाई दे रही थी। घर पर 15 दिन पहले ही बीएसएनएल का फोन लगा था। उसकी आवाज़ की आदत नहीं पड़ी थी। उस दिन जब फोन बजा तो इमरजेंसी अलार्म जैसा सुनाई पड़ा।
फ़ोन पर मेरी एडिटर फ़ातिमा ज़कारिया कह रही थीं, ‘आप ऑफिस आ सकते हैं।’ मैंने हां कहा। वे बोलीं, ‘संभलकर आना, सुरक्षित रहना।’मैं घर से सुबह 11.30 की बजाय सुबह 6.30 बजे निकला और शाम 4 बजे ऑफिस पहुंच पाया। एक दिन पहले, मद्रास (अब चेन्नई) से कुछ किलोमीटर दूर, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या हुई थी।
ऑफ़िस में चार लोग थे। इनमें फोटोग्राफर सेबस्टियन डीसूजा भी थे, जिन्होंने 2008 मुंबई आतंकी हमले के दौरान अजमल कसाब की चर्चित तस्वीर खींची थी। उस दिन हमें मुंबई के हालात बताते हुए अखबार निकालना था। शुक्र है कि परिवार मुझसे ऑफिस में फ़ोन पर बात कर सकता था, जिससे पता चल जाता था कि सभी सुरक्षित हैं। फिर आई 26 जून, 2005 की बारिश, जिसने मुंबई में सैकड़ों लोगों की जान ली।
पांच दिन बाद भी बारिश नहीं रुकी। हमने मुंबई में अखबार लॉन्च ही किया था। मैं आधा किमी, कमर तक पानी में चलकर ऑफिस पहुंचा। दैनिक भास्कर के मालिक सुधीर अग्रवाल ने राहत की सांस ली, जब मैंने बताया कि किसी तरह ऑफिस पहुंच गया हूं। उन्हें भरोसा था कि मैं उपलब्ध स्टाफ के साथ अखबार निकाल लूंगा।इन दो घटनाओं के बीच भी बॉम्बे बम धमाके जैसी न जाने कितनी घटनाएं हुईं, लेकिन हर परिस्थिति में मैंने फायरफाइटर की तरह काम किया।
मुझे ऐसी परिस्थितियों में काम करने के लिए हर बार सम्मानित भी किया गया। मुझे ये अनुभव रविवार-सोमवार की दरमियानी रात याद आए, जब मैं श्रीलंका जाने के लिए मुंबई एयरपोर्ट पर था। एयरलाइंस की एक जेनज़ी (1997 के बाद जन्मी) कर्मचारी ने एक इमरजेंसी परिस्थिति संभालने से मना कर दिया। उसने कहा, ‘बहुत हुआ, यहां हर दिन इमरजेंसी होती है और इस तनाव से मेरी त्वचा पर निशान पड़ रहे हैं।’ वह चली गई।
मैनेजर दूसरी कर्मचारी के पास जाकर बोला, ‘वह तो ऐसी ही है, आज तुम संभाल लो क्योंकि भीड़ ज़्यादा है।’ मैनेजर के जाने के बाद नई कर्मचारी, सहकर्मी से बोली, ‘काम पर इमरजेंसी तनाव तो देती ही है, थका भी देती हैं।’विशेषज्ञ कहते हैं कि यह जेनज़ी का गुण है कि वे दुनिया में अन्याय का भाव बदलना चाहते हैं। एक वक्त था, जब ऐसी मेहनत (जिसका जिक्र ऊपर है) आम थी और इसका इनाम भी मिलता था।
अब आपके नियोक्ता और मैनेजर इस बात की गारंटी नहीं दे पाते कि आपको अतिरिक्त काम या मेहनत का कोई इनाम मिलेगा। फिर बात चाहे अचानक आए काम की हो जिसके लिए कामकाजी समय के बाद भी रुकना पड़े, या फिर कार्यस्थल पर करो या मरो वाली कोई परिस्थिति हो। कुछ जेनज़ी, कार्यस्थलों पर बनाए जा रहे, इमरजेंसी के गलत या नकली माहौल पर सवाल उठा रहे हैं।
एक कर्मचारी ने मुझे बताया, ‘ज्यादातर इमरजेंसी, कर्मचारियों की कमी के कारण पैदा होती हैं, न कि इसलिए कि हमसे काम नहीं हो रहा।’ मैं पूरी तरह सहमत हूं। बेशक हर कार्यस्थल पर ऐसी स्थिति हो सकती है, जिसे इमरजेंसी माना जाए, लेकिन हर काम को बेवजह इमरजेंसी बताने से जेनज़ी में नौकरी को लेकर चिंता पैदा हो जाती है। शायद इसलिए वे अक्सर हमसे ज्यादा वर्क-लाइफ़ बैलेंस की बात करते हैं।
फंडा यह है कि जेनज़ी अच्छे कर्मचारी हैं, शायद हमसे भी बेहतर, लेकिन अगर हम कम कर्मचारी रखें और हर काम को इमरजेंसी बताएं, तो गलती हमारी होगी।

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