नवनीत गुर्जर का कॉलम:नेताजी, तुम आना! जैसे कैक्टस में कांटे आते हैं!
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- Navneet Gurjar’s Column: “Netaji, Please Come! Like Thorns On A Cactus!”
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अबके वोट मांगने आए हो! फिर कब आओगे? तमन्ना है! अरदास है! विनती भी। तुम आना। जरूर आना। जब भी वक्त मिले। …और वक्त अगर न हो जब, तब भी आना। जैसे जिस्म की सारी ताकत हाथों में आ जाती है! जैसे लहू आता है रगों में! जैसे हौले से चूल्हे में आग आती है! आना! आना, जैसे बारिश छंटने पर कैक्टस में कांटे आते हैं।
…और कसमें जाए भाड़ में! आ जाना। आना… जैसे वीनस, मर्क्यूरी के पीछे आता है! आ जाना! तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा! वर्षों-सदियों से किसी ने कुछ कहा है भला, जो अब कहेगा? तुम जो लाल सेलो टेप लेकर आए थे पिछली बार, हमने उसे अपने होंठों पर चिपका लिया है।
जब तक ये टेप होंठों पर रहेगा, होंठ खुलने से रहे! जब होंठ ही नहीं खुलेंगे, तो तुम आओ, न आओ, कोई कुछ कैसे बोल सकता है? हम तो अपने पके-पकाए होंठों को सिलकर सिर्फ ये चाहते हैं कि तुम बोलो! हमारे तो कान ईश्वर ने सिर्फ सुनने के लिए दिए हैं। होंठ, जीभ, तलवे तो सिर्फ इसलिए हैं कि तुम जब हमारे पास आओ- जब भी!- तो बिना होंठ, जीभ और तलवे वाले हम लोगों को देखकर तुम्हें उल्टियां न आएं! तुम्हारा पेट खराब न हो! तुम्हारे नाते-रिश्तेदारों को वायरल न जकड़ ले!
खैर, जो न आने का मन हो तो भी हमें कोई गुरेज नहीं होगा! जब भी आ न पाओ, किसी भयानक रात में सांय-सांय करती, बहती हवा के साथ कोई संदेशा भेज देना! हम अपनी खिड़कियां खोल कर रखेंगे! चोरों की तरह, हो सकता है डकैतों की तरह, वो हमारे घरों में दाखिल हो जाएगी! संदेशा सुना जाएगी। हम समझ लेंगे कि तुम आ गए। पांच साल का इंतजार नहीं करना पड़ा।
आखिर तुम बाकी मक्कार अफसरों, लम्पट नेताओं और बेमुरौव्वत सरकारों की तरह तो नहीं निकले! हवा के साथ ही सही, हवाई संदेश तो भेजे हो! …और आगे भी भेजते रहोगे! है ना? गुस्सा तो इतना आता है कि आग लगा दें पूरी नौकरशाही की जड़ में, पूरी सरकार के आधार पर! दरअसल, हमारे देश की दिक्कत यह नहीं है कि हमारा समाज तुनकमिजाज हो गया है या बहुत अधीर हो चुका है। दिक्कत यह है कि हमारी नौकरशाही संवेदनहीन हो चुकी है। हमारी सरकारें संवेदना खो चुकी हैं। उनका! उन सबका एकमात्र उद्देश्य केवल चुनाव जीतना या जिताना रह गया है। उन्हें हमारी भूख, हमारे सिकुड़ते पेट और सड़ रही जिंदगी से ज्यादा अपनी मूंछों की फिक्र है!
हे, नेताओ! हे अफसरो! हे मंत्रियो! तुम आदमी को, उसकी भावनाओं, संवेदनाओं और उसका आगा-पीछा, सबकुछ कच्चा चबा जाते हो! तुम जंगल के चीतों से भी ज्यादा जालिम हो! जमाने भर से नाखून तेज हैं तुम्हारे! कहो, तुम हमारी कितनी रातें और कितने दिन यूं ही निगलते रहोगे! कितनी ठण्डी रातों को आखिर कब तक दहशत से भरते रहोगे? कितने सुहाने दिन रोहिणी नक्षत्र की तरह गर्मी और उमस और तड़प से भरते रहोगे?
खैर, हम तो कुछ नहीं! कुछ भी नहीं! चांद तक की हड्डियां चबा खाईं तुमने। सूरज को भी नहीं बख्शा! हम तो निरे इंसान हैं। …और तुम्हें, तुम्हारे जैसों को वर्षों से, सदियों से सहते-सहते अब तो इंसान कहलाने लायक भी नहीं रह गए हम! हमारी सिर्फ इतनी प्रार्थना है! बस, इत्ती-सी इल्तिजा.. कि कम से कम अपनी हैवानियत, नाशुक्रेपन की आंधी में हमारी बची-खुची इंसानियत को मत उड़ा ले जाना! आखिर हर पांच साल में तुम्हें हमारे पास तो आना ही है। वोट मांगने! झूठे ही सही, वादे करने! बहलाने! फुसलाने!
…इस सब के लिए हमारा जिंदा रहना, हमारी बची-खुची इंसानियत का सलामत रहना तो जरूरी है ही! वरना तुम्हें और तुम्हारे जैसों को तो कोई पांच साल बाद भी भाव देने वाला नहीं है। आस-पड़ोस के देशों को देखकर ही सही, कुछ तो सीख ले लो! अगली पीढ़ी तो तुम्हारा, तुम सबका कैसा कचूमर बनाएगी, पता नहीं!
समझ में नहीं आता, हम आम लोग कब चेतेंगे? कब हम कह सकेंगे कि हम अपनी हरियाली को खुद अपने लहू से सींचने में सक्षम हैं? किसी राजनीतिक हवा या किसी सरकारी बारिश का जरा-सा भी कर्ज नहीं है हम पर! हम जब चाहें खिल सकते हैं! …और जब चाहें अपनी जड़ों में लपेटकर तुम्हें पंगु बना सकते हैं। जकड़ सकते हैं। तुम क्या हमें जकड़ोगे! तुम क्या हमें बरगलाओगे?
किसी सरकारी बारिश का जरा भी कर्ज नहीं है हम पर… समझ में नहीं आता, हम आम लोग कब चेतेंगे? कब हम कह सकेंगे कि हम अपनी हरियाली को खुद अपने लहू से सींचने में सक्षम हैं? किसी राजनीतिक हवा या किसी सरकारी बारिश का जरा-सा भी कर्ज नहीं है हम पर!
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