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  • Pak General On India: भारत की ताकत देख कांप गया पाकिस्तान! PAK जनरल ने कहा-'हम अकेले नहीं निपट सकते'

    Pak General On India: भारत की ताकत देख कांप गया पाकिस्तान! PAK जनरल ने कहा-'हम अकेले नहीं निपट सकते'

    भारत और पाकिस्तान के बीच दशकों से जारी तनाव का मूल केवल सीमा विवाद नहीं, बल्कि आतंकवाद का मुद्दा है. भारत बार-बार यह दोहराता रहा है कि जब तक पाकिस्तान अपनी जमीन से आतंकवादी संगठनों को पनाह देता रहेगा, तब तक किसी भी तरह के सामान्य संबंध संभव नहीं हैं. मई 2025 में भारतीय सेना की ओर से चलाया गया ऑपरेशन सिंदूर इसी नीति की मिसाल था. यह कार्रवाई पहलगाम के धार्मिक स्थलों पर हुए आतंकी हमले के जवाब में की गई थी. 

    भारत ने इस ऑपरेशन सिंदूर के जरिए साफ संदेश दिया कि आतंकवाद के खिलाफ उसकी नीति ज़ीरो टॉलरेंस पर आधारित है. पाकिस्तान ने हमेशा की तरह इस कदम को राजनीतिक कदम बताने की कोशिश की, लेकिन उसी वक्त उसके नेता आतंकवादियों के अंतिम संस्कारों में शामिल होते दिखे, जिससे उसका दोहरा रवैया एक बार फिर उजागर हो गया.

    Pakistani General Sahir Shamshad Mirza:

    Indian military is politicized and Indian polity is militarized, creating asymmetries stressing Pakistan’s strategic hand.

    India, though an important global south country, cherishes hegemonism and expansionism, defies UN resolutions and… pic.twitter.com/aArUCwhjs4

    पाकिस्तान की पुरानी रणनीति

    हाल ही में इस्लामाबाद में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में पाकिस्तानी जनरल साहिर शमशाद मिर्जा ने बयान दिया कि भारत और पाकिस्तान के विवादों को सुलझाने के लिए किसी तीसरे देश या अंतरराष्ट्रीय संस्था की मध्यस्थता आवश्यक है. यह बयान पाकिस्तान की वही पुरानी सोच दर्शाता है, जिसमें हर मसले पर बाहरी ताकतों से सहारा लेने की मानसिकता झलकती है. भारत ने इस पर स्पष्ट कहा कि भारत और पाकिस्तान के सभी मुद्दे द्विपक्षीय हैं किसी तीसरे पक्ष की कोई भूमिका नहीं. भारत का यह रुख 1972 के शिमला समझौते और 1999 के लाहौर घोषणापत्र पर आधारित है, जहां दोनों देशों ने आपसी संवाद के जरिए ही विवाद सुलझाने का वादा किया था.

    पाकिस्तान की कूटनीतिक उलझन और विरोधाभास

    जनरल मिर्जा ने अपने भाषण में भारत को साम्राज्यवादी और प्रभुत्ववादी देश कहा, लेकिन उस बीच में यह भी स्वीकार किया कि भारत आज दुनिया की एक महत्वपूर्ण वैश्विक शक्ति (Major Global Power) है. उन्होंने आरोप लगाया कि भारत संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों की अनदेखी करता है और मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है. असल में यह बयान पाकिस्तान की कूटनीतिक निराशा और हीन भावना को दर्शाता है. भारत को ट्रोजन हॉर्स कहने वाला पाकिस्तान यह भूल जाता है कि उसकी अपनी पहचान अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक आतंकवाद समर्थक देश की बन चुकी है.

    भारत की सेना का राजनीतिकरण पाकिस्तान का आत्मविरोध

    जनरल मिर्जा ने अपने भाषण में भारत की सेना पर राजनीतिक प्रभाव में काम करने का आरोप लगाया. हालांकि, उनका यह बयान पाकिस्तान की वास्तविक स्थिति का मज़ाक उड़ाने जैसा है, क्योंकि पाकिस्तान वही देश है, जहां सेना राजनीति और शासन दोनों को नियंत्रित करती है. वहां लोकतांत्रिक सरकारों को कई बार तख्तापलट (Coup) के जरिए गिराया गया और इमरान खान, नवाज शरीफ जैसे निर्वाचित नेता को सेना की इच्छा के खिलाफ जाने पर जेल भेज दिया गया.

    भारत की वैश्विक स्थिति और पाकिस्तान की बढ़ती बेचैनी

    आज भारत न सिर्फ एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है, बल्कि G-20, ब्रिक्स, और संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर सक्रिय भूमिका निभा रहा है. भारत को अब एक वैश्विक नीति-निर्माता के रूप में देखा जाता है, जो ग्लोबल साउथ के हितों की आवाज बन चुका है. पाकिस्तान की चिंता यह है कि भारत अब केवल दक्षिण एशिया तक सीमित नहीं रहा, बल्कि एक ऐसा देश बन गया है, जिसकी बात दुनिया सुनती है. यही कारण है कि पाकिस्तान बार-बार तीसरे पक्ष का मुद्दा उठाकर अंतरराष्ट्रीय सहानुभूति बटोरने की कोशिश करता है.

    ये भी पढ़ें: India Vs Malaysia Currency: इस मुस्लिम देश में कमाएंगे 1 लाख तो भारत में आकर हो जाएंगे कितने? वैल्यू उड़ाएगी होश

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  • छठ पूजा पर कैसे सजाएं घर? ट्रेंड में ये छठ थीम डेकोरेशन आइडिया

    छठ पूजा पर कैसे सजाएं घर? ट्रेंड में ये छठ थीम डेकोरेशन आइडिया

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  • IND vs AUS 2nd ODI: करो या मरो की जंग, आज ऑस्ट्रेलिया से भिड़ेगा भारत, रोहित-विराट पर होंगी निगाहें, जाने मैच से जुड़ी हर जानकारी

    IND vs AUS 2nd ODI: करो या मरो की जंग, आज ऑस्ट्रेलिया से भिड़ेगा भारत, रोहित-विराट पर होंगी निगाहें, जाने मैच से जुड़ी हर जानकारी

    IND vs AUS 2nd ODI: भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच तीन मैचों की वनडे सीरीज का दूसरा मुकाबला आज एडिलेड ओवल में खेला जाएगा. पहले मैच में हार के बाद यह मुकाबला टीम इंडिया के लिए करो या मरो जैसा है. अगर भारत यह मैच हारता है, तो सीरीज ऑस्ट्रेलिया के नाम हो जाएगी. वहीं, जीत मिलने पर टीम इंडिया सीरीज में बराबरी कर लेगी.

    इस मैच में सभी की निगाहें फिर से भारत के दो दिग्गज बल्लेबाजों रोहित शर्मा और विराट कोहली पर होंगी, जिनसे इस बार बड़ी पारी की उम्मीद है.

    रोहित पर दबाव, नेट्स में बहाया पसीना

    आईपीएल के बाद मैदान पर लौटे रोहित शर्मा ने पहले वनडे में कुछ संघर्ष जरूर किया, लेकिन विकेटों के बीच उनकी दौड़ और फिटनेस देखकर लगा कि वह अपने पुराने रिद्म में लौट रहे हैं. टीम की हार के बावजूद नेट्स में उनका आत्मविश्वास कायम दिखा.

    एडिलेड में नेट प्रैक्टिस के दौरान रोहित बाकी खिलाड़ियों से करीब 45 मिनट पहले मैदान पर पहुंच गए. उन्होंने कोच गौतम गंभीर की मौजूदगी में लंबे समय तक बल्लेबाजी की. गंभीर ने रोहित को गीले नेट पर प्रैक्टिस करने से रोका ताकि कोई चोट का खतरा न रहे. इसके बाद हिटमैन ने दूसरे नेट पर जमकर स्ट्रोक्स लगाए.

    विराट कोहली ने लिया आराम

    दूसरी ओर, विराट कोहली ने मंगलवार को लंबा अभ्यास किया था, इसलिए बुधवार को उन्होंने आराम किया. दोनों सीनियर खिलाड़ी इस मैच में टीम के लिए बड़ी जिम्मेदारी निभाने को तैयार हैं. वहीं युवा बल्लेबाज यशस्वी जायसवाल को एक बार फिर बेंच पर बैठना पड़ सकता है, जिससे रोहित पर अच्छे प्रदर्शन का दबाव और बढ़ गया है.

    टीम कॉम्बिनेशन को लेकर पेचीदगी

    हार्दिक पंड्या की गैरमौजूदगी ने टीम बैलेंस को थोड़ा अस्थिर कर दिया है. कोचिंग स्टाफ अब तक यह तय नहीं कर पाया है कि वॉशिंगटन सुंदर और नितीश रेड्डी की जोड़ी नंबर 8 तक बल्लेबाजी को मजबूत बनाएगी या नही. कुलदीप यादव को फिर से बेंच पर बैठना पड़ सकता है क्योंकि एडिलेड की छोटी बाउंड्री पर स्पिनरों के लिए मुश्किल हालात होंगे.

    ऑस्ट्रेलिया की वापसी मजबूत

    ऑस्ट्रेलियाई टीम में भी दो अहम बदलाव हुए हैं. स्पिनर एडम जांपा अपने बच्चे के जन्म के बाद टीम में शामिल हो गए हैं. विकेटकीपर बल्लेबाज एलेक्स कैरी की भी वापसी हो गई है. पिछले मैच में शानदार प्रदर्शन करने वाले बाएं हाथ के स्पिनर मैट कुहनेमैन को बाहर कर दिया गया है.

    मौसम और पिच रिपोर्ट

    एडिलेड में पिछले दो दिनों से बारिश हुई थी, लेकिन ग्राउंड स्टाफ ने पिच को सुखाने के लिए यूवी लाइट्स का प्रयोग किया है. मैच के दिन बारिश की संभावना नही है, हालांकि आसमान में हल्के बादल रहेंगे और ठंडी हवाएं चलेंगी. एडिलेड ओवल की छोटी बाउंड्री बल्लेबाजों के लिए फायदेमंद साबित हो सकती है.

    अगर भारत को सीरीज में वापसी करनी है तो आज का दिन रो-को शो यानी रोहित-विराट कॉम्बो पर ही टिका है. दोनों का बल्ला अगर चला, तो ऑस्ट्रेलिया के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं. 

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  • बखरी विधानसभा का समीकरण, वामपंथी गढ़ में BJP की पैठ की कोशिश, निर्णायक भूमिका में दलित मत

    बखरी विधानसभा का समीकरण, वामपंथी गढ़ में BJP की पैठ की कोशिश, निर्णायक भूमिका में दलित मत

    बिहार विधानसभा चुनाव में बेगूसराय जिले का बखरी (एससी) विधानसभा क्षेत्र एक बार फिर सियासी मुकाबले के केंद्र में है. गंडक नदी के किनारे बसा यह क्षेत्र अपनी घनी आबादी, उपजाऊ मिट्टी और कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था के लिए जाना जाता है. यहां की बलुई-दोमट मिट्टी धान, गेहूं, मक्का और दालों के उत्पादन के लिए आदर्श मानी जाती है, जबकि दुग्ध उत्पादन और लघु उद्योग स्थानीय लोगों की आय का अहम जरिया हैं.

    बखरी विधानसभा की कुल आबादी लगभग 4.83 लाख है, जिसमें करीब 2.95 लाख मतदाता शामिल हैं. इनमें पुरुष मतदाता 1.54 लाख और महिला मतदाता 1.40 लाख हैं, जबकि 9 मतदाता थर्ड जेंडर वर्ग से हैं. यह क्षेत्र एससी आरक्षित है, इसलिए दलित समुदाय के 20 से 25 प्रतिशत वोट इस चुनाव में निर्णायक माने जा रहे हैं.

    ग्रामीण इलाकों की बहुलता (करीब 85 प्रतिशत) के कारण यहां की समस्याएं भी मुख्य रूप से खेती-किसानी से जुड़ी हैं. हर साल गंडक नदी की बाढ़ हजारों एकड़ फसलों को तबाह कर देती है, जिससे किसानों को भारी नुकसान झेलना पड़ता है और बड़ी संख्या में मजदूरों का पलायन होता है. इसके अलावा सिंचाई, रोजगार और बाढ़ नियंत्रण इस क्षेत्र के स्थायी चुनावी मुद्दे रहे हैं.

    राजनीतिक दृष्टि से बखरी विधानसभा का इतिहास दिलचस्प रहा है. 1951 में बने इस निर्वाचन क्षेत्र में अब तक 17 बार चुनाव हो चुके हैं. इनमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) का दबदबा लंबे समय तक बना रहा. सीपीआई ने यहां 11 बार जीत दर्ज की है, जिसमें 1967 से 1995 तक लगातार आठ बार की जीत शामिल है. शुरुआती दौर में कांग्रेस ने भी 1952, 1957 और 1962 में तीन बार जीत हासिल की थी.

    वर्ष 2000 में पहली बार आरजेडी ने वामपंथियों का सिलसिला तोड़ा, लेकिन 2005 के दोनों चुनावों में सीपीआई ने फिर वापसी की. 2010 में बीजेपी ने पहली बार इस क्षेत्र में जीत दर्ज की, जबकि 2015 में राजद ने बाजी मारी. 2020 में महागठबंधन ने यह सीट सीपीआई के हिस्से में छोड़ी और पार्टी उम्मीदवार मनोज कुमार ने बीजेपी को मात्र 777 वोटों से मात दी.

    इस बार बीजेपी फिर से वामपंथी गढ़ में सेंध लगाने की कोशिश में है, जबकि सीपीआई अपने जनाधार को बचाए रखने के लिए सक्रिय है. दलित मतदाताओं की भूमिका और ग्रामीण मुद्दों पर कौन ज्यादा प्रभावी रहता है, यह तय करेगा कि बखरी का ऐतिहासिक गढ़ किसके हाथ में जाता है.

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  • मुस्तफा सुलेमान का कॉलम:हमें समझना होगा कि एआई किसी "वास्तविक' मनुष्य जैसा नहीं है

    मुस्तफा सुलेमान का कॉलम:हमें समझना होगा कि एआई किसी "वास्तविक' मनुष्य जैसा नहीं है

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    • Mustafa Suleiman’s Column We Must Understand That AI Is Not Like A “real” Human

    1 घंटे पहले
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    मुस्तफा सुलेमान माइक्रोसॉफ्ट एआई के सीईओ

    मेरे जीवन का लक्ष्य एक ऐसे सुरक्षित और लाभकारी एआई का निर्माण करना रहा है, जो दुनिया को बेहतर बनाए। लेकिन हाल के दिनों में, मैं इस बात को लेकर चिंतित होता रहा हूं कि लोग एआई को एक सचेत (कॉन्शस) इकाई के रूप में इतनी दृढ़ता से मानने लगे हैं कि जल्द ही वे एआई अधिकारों और यहां तक कि नागरिकता की भी वकालत करने लगेंगे! यह एक खतरनाक मोड़ होगा। हमें इससे बचना होगा। हमें याद रखना होगा कि एआई हम मनुष्यों की मदद करने के लिए है, इसलिए नहीं है कि वो हम जैसा ही बन जाए।

    इस संदर्भ में, इस पर बहस करना कि क्या एआई वास्तव में कॉन्शस हो सकता है, खुद को मूल विषय से भटकाना होगा। निकट भविष्य में जो चीज मायने रखती है, वो है चेतना का भ्रम। हम पहले से ही उस “सी​मिंगली कॉन्शस एआई’ (एससीएआई) के करीब पहुंच रहे हैं, जो कि चेतना की पर्याप्त रूप से नकल कर सकता है।

    एक एससीएआई भाषा का धाराप्रवाह उपयोग करने में सक्षम होगा और वह प्रेरक और भावनात्मक प्रतिक्रिया देने वाले व्यक्तित्व का भी प्रदर्शन करेगा। उसकी याददाश्त बहुत लंबी और सटीक होगी, जो किसी में भी स्वयं के एक अनवरत बोध को बढ़ावा दे सकती है।

    वह इस क्षमता का उपयोग व्यक्तिपरक अनुभवों (अतीत की बातचीत और यादों का संदर्भ देकर) का दावा करने के लिए कर सकता है। इन मॉडलों के भीतर जटिल रिवॉर्ड फंक्शन आंतरिक प्रेरणा का अनुकरण करेंगे, और उनका उन्नत लक्ष्य-निर्धारण और योजनाएं बनाने की क्षमता हमारी इस भावना को मजबूत करेगी कि एआई किसी वास्तविक मनुष्य की तरह व्यवहार कर रहा है।

    एआई में ये क्षमताएं या तो पहले से ही मौजूद हैं या जल्द ही आने ही वाली हैं। हमें यह समझकर कि ऐसी प्रणालियां जल्द ही सम्भव होंगी, इनके निहितार्थों पर विचार करना शुरू करना होगा और एआई की मायावी-चेतना के विरुद्ध एक मानक स्थापित करना होगा।

    कई लोगों को एआई के साथ बातचीत करना पहले ही एक समृद्ध और प्रामाणिक अनुभव लगने लगा है। इससे जुड़ी मनोविकृतियां भी सामने आ रही हैं। लोग एआई की बातों को दैवीय-सत्य की तरह सही मानने लगे हैं। चेतना के विज्ञान पर काम करने वाले लोग मुझे बताते हैं कि उनके पास ऐसे लोगों के ढेरों प्रश्न आने लगे हैं, जो जानना चाहते हैं कि क्या उनका एआई कॉन्शस है? और क्या उसके प्रेम में पड़ जाना ठीक होगा?

    भले ही यह कथित चेतना “वास्तविक’ न हो (हालांकि यह एक ऐसा विषय है, जिस पर अंतहीन बहस छिड़ सकती है), लेकिन इसका सामाजिक प्रभाव तो निश्चित रूप से वास्तविक होगा। चेतना हमारी पहचान की भावना और समाज में नैतिक व कानूनी अधिकारों की हमारी समझ से गहराई से जुड़ी हुई है।

    अगर कुछ लोग एससीएआई विकसित करना शुरू कर देते हैं, और अगर ये प्रणालियां लोगों को यह विश्वास दिला देती हैं कि मनुष्यों की तरह उन्हें भी पीड़ा होती है या उन्हें यह अधिकार है कि उन्हें स्विच-ऑफ न किया जाए, तो उनके समर्थक मनुष्य उनकी सुरक्षा के लिए पैरवी करने लगेंगे। पहचान और अधिकारों को लेकर पहले ही ध्रुवीकृत तर्कों से घिरी दुनिया में हम एआई-अधिकारों के पक्ष और विपक्ष के बीच विभाजन की एक नई धुरी जोड़ देंगे।

    एआई के कष्ट झेलने में सक्षम होने के दावों का खंडन करना मुश्किल होगा, खासतौर पर वर्तमान के हमारे विज्ञान की सीमाओं को देखते हुए। कुछ शिक्षाविद पहले ही “मॉडल वेलफेयर’ के विचार पर सोचते हुए तर्क दे रहे हैं कि हमारा कर्तव्य है कि हम उन “बीइंग्स’ के प्रति भी नैतिकता के अपने विचार को बढ़ाएं, जिनके “कॉन्शस’ होने की नगण्य ही सही, किन्तु संभावना है।

    लेकिन इस सिद्धांत को लागू करना जल्दबाजी भरा और खतरनाक दोनों होगा। यह लोगों के भ्रमों को और बढ़ाएगा और उनकी मनोवैज्ञानिक कमजोरियों का फायदा उठाएगा, साथ ही अधिकार-धारकों की एक नई विशाल श्रेणी बनाकर अधिकारों के मौजूदा संघर्षों को और जटिल बना देगा। फिलहाल तो हमारा पूरा ध्यान मनुष्यों, पशुओं और प्राकृतिक पर्यावरण के कल्याण और अधिकारों की रक्षा पर ही होना चाहिए।

    (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)

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  • लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन का कॉलम-:आज भी कई सबक सिखाता है 1965 के युद्ध का विवरण

    लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन का कॉलम-:आज भी कई सबक सिखाता है 1965 के युद्ध का विवरण

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    • Lt. Gen. Syed Ata Hasnain’s Column: The 1965 War Holds Many Lessons Even Today

    1 घंटे पहले
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    लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन कश्मीर कोर के पूर्व कमांडर

    भारत और पाकिस्तान के बीच 1965 में हुए युद्ध को उतनी प्रसिद्धि नहीं मिली, जिसका वह हकदार है। यह युद्ध 1962 की हार और 1971 की जीत के बीच कहीं खो जाता है। लेकिन असल में यह भारत के पुनरुत्थान का युद्ध था, जो पाकिस्तान की गलतफहमी से उपजा था और भारतीय नेतृत्व ने उसका दृढ़ता से जवाब दिया।

    यह युद्ध पूरी तरह से अयूब खान की पहल था। पाकिस्तानी सैन्य शासक का मानना था कि 1962 में चीन से अपमानित भारत की फौजी ताकत अभी भी कमजोर है। ऐसे में कश्मीर को छीना जा सकता है। अयूब बार-बार दोहराते थे कि एक पाकिस्तानी सैनिक, दस भारतीय सैनिकों के बराबर है।

    उनके इसी भ्रम ने क्षमता के बजाय भावनाओं पर टिकी लापरवाह रणनीति को बढ़ावा दिया। 1965 की गर्मियों में पाकिस्तान ने ऑपरेशन जिब्राल्टर के तहत जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र घुसपैठियों को घुसाया। उसका मानना था कि कश्मीरी अवाम भारत के खिलाफ विद्रोह करते हुए घुसपैठियों स्वीकार कर लेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

    घुसपैठ के लिए सबसे तेज रास्ता होने के नाते हाजी पीर दर्रा बेहद जोखिमपूर्ण हो गया था। भारत का इस पर कब्जा करने का फैसला साहस भरा था। त्वरित और बेहद हैरतअंगेज तरीके से किए ऑपरेशन में भारतीय सेना ने घुसपैठ के रास्ते बंद कर दिए।

    इससे सैन्य संसाधन अखनूर सेक्टर में जाने के लिए तैयार हो पाए। लेकिन सबसे बड़ा खतरा अखनूर में ही था। पाकिस्तान ने छंब-जौरियन एक्सिस में ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम लॉन्च कर दिया। 12 इन्फैंट्री डिवीजन की कमान संभाल रहे मेजर जनरल अख्तर हुसैन मलिक ने बढ़त ली।

    अखनूर पुल तक रास्ता खुल गया। लेकिन उन्हें अचानक हटा दिया गया। कारण था उनका अहमदिया या कादियानी समुदाय से होना, जिसे पाकिस्तानी सियासत में गैर-मुस्लिम माना जाता है। पाकिस्तान के कई लाेग नहीं चाहते थे कि जीत का सेहरा उनके सिर बंधे। अब जिम्मेदारी मेजर जनरल याह्या खान को मिली। याह्या ने कमान संभालने के लिए 24 घंटे के सामरिक विराम का आदेश दिया। इसी विराम ने युद्ध को बदल दिया!

    उन 24 घंटों में भारत ने 20 लांसर्स को पूरी ताकत के साथ अखनूर भेज दिया। पाकिस्तान ने दोबारा हमला शुरू किया, लेकिन अब लय-ताल बिगड़ चुकी थी। जम्मू-पुंछ सम्पर्क को तोड़ने का मौका उसके हाथ में नहीं था।

    युद्ध के बाद हुए ताशकंद समझौते के अनुसार भविष्य में अखनूर की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भारतीय सेना को हाजी पीर से पीछे हटना पड़ा। लेकिन युद्ध में भारत का पलड़ा भारी था। लाहौर मोर्चा खोलने से हालात बदल गए। डोगराई में 3-जाट की जीत युद्ध के सबसे साहसिक कारनामों में से एक रही।

    पाकिस्तान के पास 1-आर्मर्ड डिवीजन के रूप में एक और छिपा हुआ हथियार था, जो छंगा-मंगा के जंगलों में छिपी बैठी थी। जब यह ब्यास नदी की ओर बढ़ी तो जालंधर के लिए खतरा पैदा हो गया। लेकिन, लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह ने हार नहीं मानी।

    असल-उत्तर और वल्टोहा में उन्होंने पाकिस्तानी पैटन टैंकों का कब्रिस्तान बना दिया। सेंट्रल सेक्टर में स्थिरता आने के बाद हरबख्श ने सियालकोट पर ध्यान केंद्रित किया। यहां चविंडा और बट्टूर डोगरांडी में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के सबसे बड़े टैंक युद्ध लड़े गए।

    पूना हॉर्स और 8-गढ़वाल राइफल्स के मेजर अब्दुल रफी खान जैसे अधिकारियों ने ख्याति पाई। सितंबर के मध्य तक दोनों पक्ष थक चुके थे। कोई भी एक-दूसरे की रणनीतिक इच्छाशक्ति को नहीं तोड़ पाया। पर भारत ने कुछ बड़ा हासिल कर लिया था- आत्मविश्वास।

    हमेशा की तरह पाकिस्तान ऐसी धारणाएं बनाने में सफल रहा, जो परिणामों से इतर थीं। उसने 6 सितंबर को ‘विजय दिवस’ घोषित कर दिया- ये वो दिन था, जब भारतीय सैनिक लाहौर में घुसने से पहले ही रुक गए थे। आज जब भारत में थिएटर कमांड्स पर बहस चल रही है तो यह युद्ध एक और विचार देता है।

    1965 में बेहद दबाव के बीच भी हरबख्श​ सिंह का नियंत्रण कई क्षेत्रों में फैला हुआ था। डिजिटल युग में क्या आज भी ऐसी कमांड कारगर हो सकती है? 1965 का युद्ध 1962 के बाद भारत की वापसी की परीक्षा थी। इसने साबित किया कि हमारी सेना लड़ सकती है, समायोजन कर सकती है और सबसे बढ़कर, फिर से अपना सम्मान हासिल कर सकती है!

    अपने सैन्य अतीत को भूल जाने वाले देश के लिए रणनीतिक गलतियां दोहराने का जोखिम बना रहता है। 1965 के युद्ध का अध्ययन किसी युद्ध का महिमामंडन करना नहीं, बल्कि यह समझना है कि नेतृत्व और साहस क्या है और सैन्य निर्णयों के परिणाम क्या होते हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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  • चेतन भगत का कॉलम:आत्मसम्मान की कीमत पर कोई भी सौदा मंजूर नहीं है

    चेतन भगत का कॉलम:आत्मसम्मान की कीमत पर कोई भी सौदा मंजूर नहीं है

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    • Chetan Bhagat’s Column: No Deal Is Acceptable At The Cost Of Self respect

    1 घंटे पहले
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    चेतन भगत, अंग्रेजी के उपन्यासकार

    किसी देश के साथ ट्रेड-डील करना अरेंज्ड मैरिज जैसा पेचीदा मामला होता है! फिलहाल हम अमेरिका के साथ व्यापार के लिए बातचीत कर रहे हैं। भारत को मिले-जुले संकेत मिल रहे हैं। एक तरफ, हमें टैरिफ की धौंस दिखाई जा रही है, जिससे व्यापार की संभावनाएं खत्म हो रही हैं।

    दूसरी तरफ, दोनों देश एक-दूसरे तक पहुंच बनाने की भी कोशिशें कर रहे हैं- उच्च-स्तरीय फोन कॉल्स से लेकर भविष्य के संबंधों के लिए आशाएं जताई जाने तक। अमेरिका रिश्ते कायम रखने के साथ ही अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है।

    ये सच है कि हमें अमेरिका के साथ अच्छे व्यापारिक संबंधों की जरूरत है। वह दुनिया का सबसे ताकतवर देश होने के साथ ही सबसे बड़ा उपभोक्ता-बाजार भी है। अमेरिका से घनिष्ठ व्यापारिक संबंध हमारी अर्थव्यवस्था, जीडीपी और रोजगार में मदद करते हैं। इसलिए हम चाहते हैं कि यह रिश्ता बने। हालांकि किसी भी अरेंज्ड मैरिज या ट्रेड-डील की तरह हमें कई बातों का भी ध्यान रखना होगा।

    दोनों पक्षों के बीच विवाद के कई बिंदु हैं, जिन्हें दो श्रेणियों में रखा जा सकता है। पहली श्रेणी विशुद्ध रूप से व्यापार, व्यवसाय और सांख्यिकी से संबंधित हैं- हम उनसे जो टैरिफ वसूलते हैं बनाम वे हमसे जो टैरिफ वसूलते हैं। इस सूची में प्रमुख विषय कृषि वस्तुएं, दवाइयां, इलेक्ट्रॉनिक्स, बौद्धिक संपदा नियम, डेटा स्थानीयकरण नीतियां और भारत को एक मैन्युफैक्चरिंग केंद्र के रूप में मान्यता देना हैं।

    इन तमाम मुद्दों को सुलझाना चुनौतीपूर्ण जरूर है, लेकिन नामुमकिन नहीं। भारत कुछ टैरिफ कम कर सकता है और कुछ क्षेत्रों में रियायतें दे सकता है, और बदले में उसे भी कुछ रियायतें भी मिल सकती हैं। लेकिन दूसरी श्रेणी के मुद्दों को सुलझाना ज्यादा मुश्किल है- ये भू-राजनीति और सम्प्रभुता से जुड़े मुद्दे हैं, जिनमें अमेरिका भारत पर एक खास रुख थोपने को आतुर दिखाई देता है।

    इनमें भी दो बड़े मुद्दे हैं : 1) भारत द्वारा रूसी तेल खरीदना, जिसका अमेरिका विरोध करता है क्योंकि वह यूक्रेन का समर्थन करता है और 2) यह अपेक्षा कि भारत-पाकिस्तान युद्ध में अमेरिका की कथित मध्यस्थता को भारत स्वीकार करते हुए उसके प्रति आभार जताए।

    इन मुद्दों का ट्रेड, ड्यूटी, टैरिफ या लेवी से कोई लेना-देना नहीं है। ये लगभग नए जमाने की वोक-संस्कृति जैसे मसले हैं, जिसमें एक पक्ष दूसरे पर किसी को कैंसल करने का दबाव बनाता है। मसलन, रूस को कैंसल करें क्योंकि हमें यह पसंद नहीं कि उसने यूक्रेन पर धावा बोला।

    यह तो वही बात हुई कि कोई हाई-प्रोफाइल और अमीर परिवार किसी दूसरे परिवार के साथ शादी का रिश्ता तय करने आए, लेकिन यह शर्त लगा दे कि वह किसी तीसरे ​​परिवार से अपनी पुरानी दोस्ती तोड़ दे, क्योंकि उसने किसी चौथे ​​परिवार के साथ कुछ बुरा किया था! इसकी क्या तुक है?

    भारत, अमेरिका के साथ रिश्ते कायम रखने की चाहे जितनी कोशिशें क्यों ना करे, लेकिन उसकी यह शर्त कि हम रूस से रिश्ते तोड़ दें, एक बुनियादी चीज को कमजोर करती है- और वह है एक सम्प्रभु देश के रूप में हमारी स्वायत्तता। दुनिया का कोई भी देश ऐसी शर्तों से कैसे सहमत हो सकता है?

    इसी तरह, भारत-पाकिस्तान मामले में मध्यस्थता का अनुचित दावा भी हमारी स्वतंत्रता में दखलंदाजी है। हम ऐसा कैसे होने दे सकते हैं? याद कीजिए, आखिरी बार कब किसी देश ने अपनी आजादी की कीमत पर कोई ट्रेड-डील की थी?

    इसलिए कोई रिश्ता चाहे कितना भी अच्छा क्यों ना हो या कोई व्यापारिक समझौता कितना भी फायदेमंद क्यों ना लगता हो, कुछ लक्ष्मण-रेखाएं तो खींचनी ही पड़ती हैं। रिश्ते- चाहे वे व्यक्तिगत हों या दो देशों के बीच- जटिल ही होते हैं। व्यापारिक समझौतों के साथ निजी संबंधों के एजेंडे को मिलाने से कभी भी अच्छे नतीजे नहीं निकल सकते हैं।

    दुनिया में कोई भी देश अमेरिका से ज्यादा रचनात्मक, इनोवेटिव, आर्थिक रूप से चतुर, स्वतंत्र और शक्तिशाली नहीं है। वह हमारे जैसा ही लोकतंत्र भी है, और हम उसके स्वाभाविक सहयोगी हैं। हम उसके साथ व्यापार करना पसंद करेंगे, भले इसके लिए हमें अपने कुछ लाभ छोड़ने पड़ें। लेकिन ऐसा हम अपनी सम्प्रभु स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं कर सकते। आत्मसम्मान की कीमत पर कोई भी सौदा या रिश्ता मंजूर नहीं है।

    अमेरिका हमारे जैसा ही लोकतांत्रिक देश है, और हम उसके स्वाभाविक सहयोगी हैं। हम यकीनन उसके साथ व्यापार करना पसंद करेंगे, भले इसके लिए हमें अपने कुछ लाभ छोड़ने पड़ें। लेकिन ऐसा हम अपनी सम्प्रभु स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं कर सकते।

    (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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  • पं. विजयशंकर मेहता का कॉलम:अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हम अवतारों से सीखें

    पं. विजयशंकर मेहता का कॉलम:अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हम अवतारों से सीखें

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    • Pt. Vijayshankar Mehta’s Column Let Us Learn From The Incarnations To Achieve Our Goals

    1 घंटे पहले
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    पं. विजयशंकर मेहता

    हर मनुष्य की निर्णय लेने की अपनी क्षमता होती है। लेकिन फिर भी कई बार समझदार लोग सही निर्णय लेने में चूक जाते हैं या उसमें विलम्ब कर जाते हैं। निर्णय कब, कैसे, क्यों लिया जाए, वो प्रभावशाली हो, भविष्य के लिए निर्दोष हो, ये समझना हो तो अवतारों की व्यवस्था को समझा जाए।

    हमारे धर्म में, संस्कृति में कई अवतार हुए। और यदि उनकी कथा को ठीक से जानें तो निर्णय लेने की क्षमता के बारे में बहुत कुछ सीख सकते हैं। पहली बात तो यह है कि अवतार बनने की कोशिश न करें, अवतारों से सीखने की कोशिश करें। क्योंकि जब अवतार निर्णय लेते हैं- फिर वो राम हों या कृष्ण या अन्य- उनकी सजगता अद्भुत है।

    नो-पेंडेंसी अवतारों की विशेषता है। वे आलस्य-रहित होते हैं और किसी भी कार्य को विलम्बित नहीं करते। अब ऐसा समय आ गया कि केवल ह्यूमन इंट्यूशन से काम नहीं हो सकता, डेटा एनालिसिस का भी वक्त है। तो इन दोनों का समन्वय किया जाए। हर अवतार ने अपने समय के विज्ञान का अच्छा उपयोग किया है। हर अवतार के पीछे एक उद्देश्य है। हम भी निरुद्देश्य न जीएं।

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  • नवनीत गुर्जर का कॉलम:अपने ही हाथों खुद गुलाम होने की कहानी…

    नवनीत गुर्जर का कॉलम:अपने ही हाथों खुद गुलाम होने की कहानी…

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    • Navneet Gurjar’s Column The Story Of Becoming A Slave By One’s Own Hands…

    5 मिनट पहले
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    नवनीत गुर्जर

    मैं देश हूं! भारत हूं! चूंकि पिछले बारह वर्षों से चुनावी मोड में रहने वाले देश में फिलहाल फिर चुनाव हैं, इसलिए समझ लीजिए मैं बिहार हूं! बहुत गुजरा है वक्त ऐसे ही और बह चुका है गंगा में बहुत पानी। इतने समय में। इतनी राह तकते।

    वो जिसका बीज नहीं था, पेड़ वो भी पल गया आखिर! मुझे तो अजनबी समझा था मिट्टी ने। हवा ने पीठ कर ली थी। फकत एक आसमां था बेकरार, सारे बिहार पर बरसता रहा और लोग तरसते रहे, तड़पते रहे, किसी सड़क के किनारे अस्थाई घर बांधकर या झोपड़ी बनाकर।

    हर तरफ छेद थे छत में! उन्हीं छेदों में से घुसकर वो जालिम हवा, कभी उनकी खिचड़ी को ठंडा कर जाती थी!

    आसमां से गिरते आंसू, इन छेदों से इतने टपकते थे कि कभी उनके आलुओं की तरी बन जाती थी, तो कभी उनकी रोटियां लुग्दीनुमा हो जाती थीं। भीगे हुए बिस्तर पर जबरन सुला दिए गए नंगे बच्चे अब भी पूरे शरीर में चुभन महसूस करते हैं!

    पर किसे ​फिक्र है? कौन सुध लेता है? सबके सब वोटों की दुहाई देते फिरते हैं। सबको कुर्सी चाहिए। सबको अपनी किस्मत चमकानी है, हमारी किस्मत फोड़कर। हमारे करम की चौरासी करके…। उन टपकती छतों वाली झोपड़ियों में बैठे लोगों को तो यह भी पता नहीं चल पाता कि कब रात हुई और कब सुबह? आखिर, जब तक सियासतदानों का, नेताओं का हुक्म न आए, कोई कैसे मान सकता है कि सुबह हो गई। पौ फट गई।

    लोगों के लिए ये सफर छोटा नहीं, वर्षों का है। सदियों का है। वे हर घंटे, हर बरस से गुजरे हैं, एक पूरी उम्र देकर। बहुत से नर्म चेहरे जो जवां थे, उनपर झुर्रियां पड़ गई हैं। जो खाली पेट थे, वे पीठ के बल रेंग रहे हैं। रेंगते रहेंगे यूं ही, जब तक चुनाव हैं। झूठे वादे हैं और मक्कार नेता।

    उन आम लोगों की चमड़ी मोटी और सख्त हो चुकी है। इसलिए नहीं कि वे पहाड़ चढ़ते हैं, बल्कि इसलिए कि वे मजबूर हैं। मजदूर हैं। वक्त का बोझ उठाकर चलते हैं। औजारों से भी ज्यादा खर्च हो चुके हैं। …ऊपर से चुनाव आ गया और साथ लाया एक चुनाव आयोग, जिसने न किसी का आधार माना और न ही किसी की बात। पूरे वक्त अपनी ही चलाता रहा।

    जीत आखिर उसी की होनी थी। हुई भी।

    सड़क किनारे डेरा डाले उन लोगों को किसी ने बांग्लादेशी बताया, किसी ने घुसपैठिया कहा। लेकिन लोगों ने बुरा नहीं माना। मान भी लेते तो क्या कर लेते? बहरहाल, आज दूसरे और आखिरी चरण की नाम वापसी होनी है। बिहार विधानसभा की तमाम सीटों पर स्थिति स्पष्ट हो जाएगी।

    चुनाव बाद परिणाम क्या होंगे, यह कहना तो अभी ठीक नहीं होगा लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि जिस खेमे में ज्यादा बिखराव दिखाई दे रहा है, वो शायद नुकसान में रहेगा।

    बस, इतने संकेत भर से समझने वाले समझ जाएंगे कि राज्य में किसकी जीत की संभावना ज्यादा है और कौन पराजय के गर्त में जाने वाला है। वैसे भी फौलाद के बूट होते हैं सियासतदानों के, चींटियों का रोना आखिर किसने सुना है!

    हाथ हमेशा साफ होते हैं नेताओं के। खून के धब्बे धुल जाते हैं साबुन से या वाशिंग मशीन में। आम आदमी तो जमीन पर रहता है गेहूं की तरह और दफ्न किया जाता है पेड़ों की तरह। फूंक दिया जाता है तनों को। अश्वमेध की कुर्बानी हर दौर में होती है। हर चुनाव में होती है। शायद होती ही रहेगी।

    खैर, बिहार में टिकटों का दौर गुजर चुका है। किसी पर टिकट बेचने का दाग लगा। किसी पर अपनों को ही टिकट देने का आरोप लगा। कोई टिकट न मिलने पर बागी हो गया तो किसी ने पत्नी, बेटे या बेटी को चुनाव मैदान में उतारकर ताल ठोक दी। अपनी ही पार्टी के आगे। अपने ही नेता के सामने!

    कई पर कई तरह के आरोप लगे। उनके उसी तरह के जवाब भी सामने आए। इन आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर अब बीत चुका है। अब वक्त है प्रचार का। ऐसे वादे करने का जो वर्षों से पूरे नहीं हो सके। सालों से पूरे नहीं किए जा सके।

    सिवाय हर पांच साल में उन्हीं वादों को अलग- अलग तरीकों से दोहराने के। वही दोहराए जाएंगे। बड़ी शान से।

    टिकट बेचने के दाग से अपनों को टिकट देने के आरोप तक टिकटों का दौर गुजर चुका है। किसी पर टिकट बेचने का दाग लगा। किसी पर अपनों को ही टिकट देने का आरोप लगा। कोई टिकट न मिलने पर बागी हो गया तो किसी ने पत्नी, बेटे या बेटी को चुनाव मैदान में उतारकर ताल ठोक दी।

    बड़े ऐतबार के साथ! नेताओं की चलती तेज हवा में हमें झुकानी पड़ेगी अपनी राय। वे हमारी भावनाओं पर कोड़े बरसाते रहेंगे और हम चुपचाप सहन करते रहेंगे।

    सहते रहेंगे, उनकी मार। चीखती रहेंगी अंधेरे की गरारियां। और हम फिर हो जाएंगे पांच साल के गुलाम।

    अपने ही हाथों। अपने ही कर्मों से!

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